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श्री विपाक सूत्र--
अष्टम अध्याय
छठी पृथिवी- नरक में उत्पन्न हुआ।
टीका --सामान्य पुरुष और महापुरुष में यही भेद हुआ करता है कि साधारण पुरुष यदि किसी घटना-विशेष को देखता है तो उस से कुछ भी शिक्षा ग्रहण करने का यत्न नहीं करता प्रत्युत दूसरी
ओर मुह फेर लेता है और अपने उद्दिष्ट स्थान की ओर प्रस्थान कर जाता है । परन्तु इस प्रकार की उपेक्षागर्भित मनोवृत्ति महापुरुषों की नहीं होती । किसी विशेष घटना को देख कर महापुरुष उस के विषय में उचित ऊहापोह करते हैं और उस के मूल कारण को ढूंढने का यत्न करते हैं । कारण उपलब्ध होने पर उस के फल की ओर ध्यान देते हुए अपने आत्मा को शिक्षित करने का उद्योग करते हैं । अनगार गौतम स्वामी भी उन्हीं महापुरुषों में से एक हैं, जो कि शौरिकपुर नामक नगर के राजमार्ग में देखी हुई घटना विशेष के मूल कारण को ढूढना चाहते हैं और इसीलिये उन्होंने वीर प्रभु से पूछने का प्रयास किया था ।
गौतम स्वामी के पूछने पर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने उस दृष्ट व्यक्ति के पूर्वभव का वृत्तान्त सुनाना प्रारंभ करते हुए कहा कि गौतम ! बहुत पुरानी बात है। इसी जम्बूद्वीप के अन्तर्गत 'भारतवर्ष के अन्दर नन्दिपुर नाम का एक नगर था, जोकि परमसुन्दर एवं रमणीय था । नगर के शासक महाराज मित्र के नाम से विख्यात थे । वे पूरे प्रजाहितैषी और कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति थे । महाराज मित्र के यहां श्रीद नाम का रसोइया था, जो कि महा अधर्मी यावत् जिस को प्रसन्न करना अत्यधिक कठिन था । उस रसोइए ने रुपया, पैसा और धान्यादि के रूप में वेतन लेकर काम करने वाले ऐसे अनेक नौकर रखे हुए थे, जो मच्छियों को मारते तथा अन्य पशुओं को जाल में फंसा कर पकड़ते एवं पशुपक्षियों का वध कर उसे लाकर देते । श्रीद रसोइया इन सब को उनके परिश्रम के अनुसार वेतन देता और उन को अधिक परिश्रम से काम करने की प्रेरणा करता।
वे लोग प्रतिदिन अनेक जाति की मच्छियों को पकड़ते, तथा तित्तर, बटेर, कबूतर, मोर अादि पक्षियों एवं जलचरों, स्थलचरों और आकाश में उड़ने वाले जानवरों को पकड़, उन का वध करके श्रीद के पास लाते । इसी प्रकार तित्तर, बटेर और कबूतर आदि पक्षियों के जीते जी पर उखाड़ कर उन्हें श्रीद के पास पहुंचाते । श्रीद भी उन जीवों के मांस के छोटे, बड़े, लम्बे और गोल अनेक प्रकार के टुकड़े करता, उन्हें श्यामवण वाले एवं हिगुल-सिग़रफ के समान वर्ण वाले करता, तथा उन में से कई एक को हिम में रख कर पकाता, कई एक को स्वत: पकने के लिये अलग रखदेता, कई एक को धूप से एवं कई एक को वायु अर्थात् भाफ आदि से पकाता, तथा उन मांसखण्डों में से कई एक को तक्र से संस्कारित करता, एवं कई एक को आंवलों के रसों से, कई एक को कपित्थ (के थफल) के रसों से, कई एक को अनार के रसों से एवं कई एक को मत्स्यों के रसों से संस्कारित करता। तदनन्तर उन्हें तलता, भूनता
और शूला से पकाता। इसी भांति मत्स्यादि जीवों के मांसों का रस तैयार करता, एवं विविध प्रकार के हरे शाकों को तैयार करता और महाराज मित्र के भोजनमंडप में तैयार किये उन मांसादि पदार्थों को लाकर भोजन के समय महाराज मित्र नरेश को प्रस्तुत करता और स्वयं भी उक्त प्रकार के उपस्कृत मांसों तथा मदिराओं का यथारुचि सेवन किया करता था । इन्हीं हिंसापूर्ण जघन्य प्रवृत्तियों में अधिकाधिक यासक्त रहना उस का स्वभाव बन गया था । अन्त में उसे इन दुष्कर्मों के फलस्वरूप मर कर छठी नरक
(१) आजकल जितना देश भारतवर्ष के नाम से ग्रहण किया जाता है, वह जैनपरम्परागत भारतवर्ष से बहुत न्यून है। जैन परिभाषा के अनुसार उस में ३२ हजार देश हैं और वह बड़ा विशाल एवं विस्तृत है।
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