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श्री विधाक सूत्र ..
[ सप्तम अध्याय
तथा अाहार से सर्वथा पृथक रहना चाहिये - तो उस का जीवन इतना संकटमय न बनता । इसलिये प्रत्येक प्राणी को कार्य करते समय अपने भावी हित और अहित का विचार अवश्य कर लेना चाहिये । भावी हिताहित के विचारों को कविता की भाषा में कितना सुन्दर कहा गया है -
सोच करे सो सूरमा, कर सोचे सो सूर ।
बांक सिर पर फूल है, बांके सिर पर धून ॥ इस दोहे में कवि ने कितने उत्तम सारगर्भित विचारों का समावेश कर दिया है। कवि का कहना है कि जो व्यक्ति किसी कार्य को करने से पहले उससे उत्पन्न होने वाले हानि-लाभ को ध्यान में रखता है, उसे दृष्टि से अोझल नहीं होने देता, वह सूरमा --- वीर कहलाता है । इस के विपरीत जो बिना सोचे बिना समझे किसी काम को कर डालता है या किसी भी काम को करने के अनन्तर उसका दुष्परिणाम सामने आने पर सोचता है, वह सूर - अन्धा कहा जाता है । वीर के सिर पर फूलों की वर्षा होती है जबकि अन्धे के सर पर धूल की । इसे एक उदाहरण से समझिए
सदाचार की सजीव मूर्ति धर्मवीर सुदर्शन को जब महारानी अभया के आदेश से दासी रम्भा पौषधशाला से चम्पा के राजमहलों में उठा लाती है और सोलह शृगारों द्वारा इन्द्राणी के समान सौन्दर्य की प्रतिमा बनी हुई महाराणी अभया उनके सामने अपने वासनामूलक विचारों को प्रकट करती है तथा हावभाव के प्रदर्शन से उनके मानसमेरु को कम्पित करना चाहती है, तब सेठ सुदशन मन ही मन बड़ी गम्भीरता सोचने लगे -
सुदर्शन ! कामवामना मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है, जो सर्वतोभावी पतन करने के साथ २ उस का सर्वस्व भी छीन लेता है। इतिहास इसका पूरा समयक है । रावण त्रिखएडाधिपति था, कथाकार
इक लक्ख पूत सवा लक्व नाती,
रावण के घर दीया न वाती । यह कह कर उसके परिवार की कितनी महानता अभिव्यक्त करते हैं ?, इस के अतिरिक्त रावण अपने युग का महान विजेता और प्रतापी राजा समझा जाता था । लक्ष्मीदेवी की उस पर पूर्ण कृपा थी. उस की लंका भी सोने से बनी हुई थी। परन्तु हुश्रा क्या ?, एक वासना ने उस का सर्वनाश कर डाला. प्रतिवर्ष उसके कुकृत्यों को दोहराया जाता है, उसे विडम्बित किया जाता है. तथा उसे जलाया जाता है। कहां त्रिखण्डाधिपति रावण और कहां मैं ?. जब वासना ने उस का भी सर्वतोमखी विनाश कर डाला. तो फिर भला मैं किस गणना में हं.. अस्तु महाराणी अभया कितना भी कल कहे. मुझे भूल कर कभी भी वासना के पथ का पथिक नहीं बनना चाहिये । दूसरी बात यह है कि अभया राजपत्नी होने से मेरी माता के तुल्य है। माता के सम्मान को सुरक्षित रखना एक विनीत पुत्र का सवप्रथम कर्तव्य बन जाता है।
श्राज तो भला मेरा पौषध ही है, परन्तु मैं तो विवाह के समय - अपनी विवाहिता स्त्री के अतिरिक्त संसार की सब स्त्रियों को माता और बहिन के तुल्य समझंगा-इस प्रतिज्ञा को धारण कर चुका हूँ । तथा शास्त्रों में पानारो की पैनी छुरी कहा है, उस का संसर्ग तो स्वप्न में भी नहीं करना चाहिये, तब महाराणी अभया के इस दुर्गतिमूलक जघन्य प्रस्ताव पर कुछ विचार करू?, यह प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता, इत्यादि विचारों में निमग्न धमवीर सुदर्शन ने राणी को सदाचार के सत्पथ पर लाने का प्रयास करने के साथ २ उसे स्पष्ट शब्दों में कह दिया
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