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प्राक्कथन
हिन्दीभाषाटीकासहित
(३७)
नहीं और हो भी तो व्यर्थ ही हैं, क्योंकि शक्तिशाली हो कर भी यहां आकर हम लोगों की मदद क्यों नहीं *करते ?, इत्यादि।
(ख) चारित्रमोहनीय के बन्धहेतुओं को संक्षेप में- कषाय के उदय से होने वाला तीव्र आत्मपरिणाम, ऐसा ही कहा जा सकता है । विस्तार से कहें तो उन्हें निम्नोक्त शब्दों में कह सकते हैं
१-स्वयं कपाय करना और दूसरों में भी कवाय पैदा करना तथा कपाय के वश हो कर अनेक तुच्छ प्रवृत्ति करना।
२- सत्यधर्म का उपहास करना, ग़रीब या दीन मनुष्य की मश्वरी करना, ठट्ठ बाजी की श्रादत रखना।
३-विविध क्रीड़ाओं में संलग्न रहना, व्रत, नियमादि योग्य अंकुश में अरुचि रखना।
४-दूसरों को बेचौन बनाना, किसी के आराम में खलल डालना, हल्के आदमी की संगति करना आदि।
५-स्वयं शोकातुर रहना तथा दूसरों की शोकवृत्ति को उत्तेजित करना । ६-स्वयं डरना और दूसरों को डराना । ७-हितकर क्रिया और हितकर आचरण से घृणा करना । ८-६-१०-स्त्रीजाति, पुरुषजाति तथा नपुसकजाति के योग्य संस्कारों का अभ्यास करना ।
(५) आयुष्कर्म की नरकायु, तिर्यश्चायु, मनुष्यायु और देवायु ये चार मूलप्रकृतियें-मूलभेद होती हैं । इन के बन्धहेतुत्रों का विवरण निम्नोक्त है---
१-जरकायुष्कर्म के बन्धहेतु-बहुत आरम्भ और बहुत परिप्रह, ये नरकायु के बन्धहेतु हैं । प्राणियों को दुःख पहुंचे ऐसी कषायपूर्वक प्रवृत्ति करना प्रारम्भ है । यह वस्तु मेरी है और मैं इसका मालिक हूं, ऐसा संकल्प रखना परिग्रह है : जब प्रारम्भ और परिग्रह वृत्ति बहुत ही तोत्र हो तथा हिंसा आदि क र कर्मों में सतत प्रवृत्ति हो, दूसरों के धन का अपहरण किया जाये किंवा भोगों में अत्यन्त आसक्ति बनी रहे, तब वे नरकायु के बन्धहेतु होते हैं ।
२-तिर्यंचायुष्कर्म के बन्धहेतु-माया तिर्यश्चायु का बन्धहेतु है । छलप्रपंच करना किंवा कुटिलभाव रग्वना माया है । उदाहरणार्थ-धर्मतत्त्व के उपदेश में धर्म के नाम से मिथ्या बातों को मिला कर उन का स्वार्थबद्धि से प्रचार करना तथा जीवन को शोल से दूर रखना आदि सब माया कहलाती है और यही तियश्चायु के बन्ध का कारण बनता है।
३-अनुष्यायुष्कर्म के बन्धहेतु-अल्प आरम्भ, अल्प परिग्रह, स्वभाव की मृदुता और सरलता ये मनुष्यायु के बन्धहेतु हैं । तात्पर्य यह है कि आरम्भवृत्ति तथा परिग्रहवृत्ति को कम करना,
*फेवालश्र तसंघवदेवावरणवादो दशनमोहस्य । (तत्त्वा० ६।१४) कपायांदयात्तोत्रपरिणामश्चारित्रमोहस्य । (तत्त्वा० ६।१५।)
वहारंभपरिग्रहत्वं च नरकस्यायुषः । (तत्त्वा० ६।१६।) माया तिर्यग्योनस्य । (तत्त्वा०-६।१७) * अल्पारंभपरिग्रहत्वं स्वभावमादवमाजवं च मानुषस्य । (तत्त्वा० ६।१८।)
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