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श्रो विपाक सूत्र
[ सप्तम अभ्याय
" - पाडनिसंडाओ' नगराओ, पडिनिक्खमइ, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ २ गमणागमणाए पडिक्कमइ-" इन पदों का ग्रहण समझना चाहिए।
और “ बिलमिव पन्नगभूर अप्पाणणं आहा आहारेति' इन पदों की व्याख्या वृतिकार के शब्दों में निम्नोक्त है
___ आत्मनाऽऽहारमाहारयति, किंभूतः सन्नित्याह --पन्नगभूतः, नागकल्पो भगवान् श्राहारस्य रसोपलम्भार्थमचर्वणात, कथंभूतमाहारं ? बिलमिव असंस्पर्शनात् नागो हि विलमसंस्पृन्नात्मानं तत्र प्रवे रायति, एवं भगवानपि आहारमसंस्पृशन् रसो. पलम्भादनपेक्षः सन् आहारयतोति --" अर्थात् जिस तरह सांप बिल में सीधा प्रवेश करता है और अपनी गरदन को इधर उधर का स्पर्श नहीं होने देता तात्पर्य यह है कि रगड़ नहीं लगाता, किन्तु सोधा ही रखता है, ठीक उसी तरह भगवान् गौतम भी रसलोलुपी न होने से आहार को मुख में रख कर बिना चबाए ही अन्दर पेट में उतार लेते थे । सारांश यह है कि भगवान् गौतम भी बिल में प्रवेश करते हुए सर्प की भान्ति सीधे ही ग्रास को मुख में डाल कर बिना किसी प्रकार के चर्वण से अन्दर कर लेते थे ।
इस कथन से भगवान् गौतम में रसगृद्धि के प्रभाव को सूचित करने के साथ २ उनके इन्द्रियदमन और मनोनिग्रह को भी व्यक्त किया गया है, तथा आहार का ग्रहण भा वे धर्म के साधनभूत शरीर को स्थिर रखने के निमित्त ही किया करते थे. न कि रसनेन्द्रिय की तृप्ति करने के लियेइस बात का भी स्पष्टीकरण उक्त कयन से भलीभान्ति हो जाता है । इस के अतिरिक्त यहां पर इस प्रकार आहार ग्रहण करने से अजीणता की आशंका करना तो नितान्त भूल करना है । भगवान् गौतम स्वामी जैसे तपस्विराज के विषय में तो इस प्रकार की संभावना भी नहीं की जा सकती । अजीर्ण तो उन लोगों को हो सकता है जो इस शरीर को मात्र भोजन के लिये समझते हैं, और जो शरीर के लिये भोजन करते हैं, उन में अजीणता को कोई स्थान नहीं है, और वस्तुतः यहां पर शास्त्रकार को अचर्वण से रसास्वाद का त्याग ही अभप्रेत है, न कि चर्वण का निषेध ।।
प्रस्तुतसूत्र में पाटलिपंड नगर के पूर्वद्वार से प्रविष्ट हुए गौतम स्वामी ने एक रोगसमूहग्रस्त नितान्त दीन दशा से युक्त पुरुष को देखा -- इत्यादि विषय का वर्णन किया गया है। अब अग्रिमसूत्र में उक्त नगर के अन्य द्वारों से प्रवेश करने पर गोतम स्वामी ने जो कुछ देखा, उस का वर्णन किया जात' है
मूल- २ तते णं से भगवं गोतमे दोच्चं पि छट्टक्खमण पारणगंसि पढमाए पोरि
(१) भगवान गौतम पाटलिपण्ड नगर से निकलते हैं और जहां श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे, वहां पर आते हैं, आकर ऐर्यापथिक --गमनागमन सम्बन्धी पापकम का प्रतिक्रमण (पाप से निवृत्ति) करते हैं।
(२) छाया-ततः स भगवान् गौतमो द्वितीयमपि षष्ठक्षमणपारणके नथमायां पौरुष्यां यावत् पाटलिपंडं नगरं दाक्षिणात्येन द्वारणानु प्रविशति, तमेव पुरुषं पश्यति, कच्छूमन्तं तथैव यावत् संयमेन० विहरति । ततः स गौतमस्तृतीयमपि षष्ठ० तथैव थावत् पाश्चात्येन द्वारेणानुप्रविशन् तथैव पुरुष कच्छू० पश्यति । चतुर्थमपि षष्ठ. उत्तरेण० । अयमाध्यात्मिक: ५ पमुत्पन्नः -- अहो ! अयं पुरुषः पुरा पुराणानां यावदेवमवदत्-एवं खल्वहं भदन्त ! षष्ठस्य पारणके यावत् रीयमानो यत्रैव पाटलिपंडं तत्रैवोपागच्छामि २ पाटलिपुत्रे पौरस्त्येन द्वारेणानुप्रविष्ट: , तत्रैकं पुरुषं पश्यामि कच्छूमंतं यावत् कल्पयन्तम् । ततोऽहं
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