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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir षष्ठ अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित [ ३५७ लोग चोरी करते, दूसरों की स्त्रियों का अपहरण करते, लोगों की गांठ कतर कर धन चुराते, राज्य को हानि पहुँचाने का यत्न करते तथा बालहत्या और विश्वासघात करते, उन को दुर्योधन कोतवाल जो " दण्ड देता उस पर से यह तो स्पष्ट हो जाता है कि दुर्योधन चारकपाल के सन्मुख अपराधी के अपराध और उसके दंड का कोई मापदण्ड नहीं था । उस की मनोवृत्ति इतनी कठोर और निर्दय बन चुकी थी कि थोड़े से अपराध पर भी अपराधी को अधिक से अधिक दण्ड देना ही उसके जीवन का एकमात्र लक्ष्य बन चुका था, और इसी में वह अपने जीवन को सफल एवं कृतकृत्य मानता था । अपराधी को दंड न देने का किसी धर्मशास्त्र में उल्लेख नहीं है । शासन व्यवस्था और लोकमर्यादा को कायम रखने के लिये दण्डविधान की आवश्यकता को सभी नीतिज्ञ विद्वानों ने स्वीकार किया है, परन्तु उसका मर्यादित आचरण जितना प्रशंसनीय है, उतना ही निन्दनीय उसका विवेकशून्य मर्यादित आचरण है। जोकि भीषणातिभीषण नारकीय दुःखों के उपभोग कराने का कारण बनता हुआ आत्मा को जन्म मरण के परंपराचक्र में भी धकेल देता है । दुर्योधन चारकपाल ने दण्डविधान में जो प्रमादजन्य अथच मनमाना आचरण किया, उसी के फलस्वरूप उस को छठी नरक में २२ सागरोपम के बड़े लम्बे काल तक नारकीय भीषण यातनाओं का अनुभव करने के अतिरिक्त यहाँ पर नन्दीषेण के भव में भी स्वकृत पापकर्मजन्य अशुभ विपाक - फल का भयानक अनुभव करना पड़ा है । “ – अप्पेगतियाणं तेण चेव श्रोवीलं दलयति - " इन पदों की व्याख्या वृत्तिकार श्री अभयदेव सूरि के शब्दों में “ - तेनैव वान्तेन श्रवपीड शेवर, मस्तके तस्यारोपणात् उपपीडां वा वेदनां दलयति त्ति करोति" इस प्रकार है । अर्थात् पूर्व कराई हुई वमन को अपराधी के सिर पर रख कर उसे पीडित करता था, अर्थात् अधिक से अधिक अपमानित करता था । परन्तु श्रद्धेय पण्डित मुनि श्री घासी लाल जी म० “ - श्रप्पेगतियाणं तेणं चैव श्रोवीलं दलयति" इन पदों का अर्थ निम्नोक्त करते हैं " अप्येकान् तेन वान्ताशनादिना पुनरपि श्रवपीडां वेदनां दापयति कारयतीत्यर्थः -- " अर्थात् कई एक को वमन कराता था पुनः उसी वान्त पदार्थ को उन्हें खिलाता था, इस प्रकार वह दुर्योधन चार कपाल कई एक को प्राणान्तक कष्ट पहुँचाया करता था । "सत्थोवाडिए – ” पद का अर्थ है - शस्त्र से उत्पादित अर्थात् खड्ग आदि शस्त्रों से कई एक का विदारण कर डालता था, उन्हें फाड़ देता था । “ – श्रगडीस उच्चूलं बोलगं पज्जेति - " इन पदों में प्रयुक्त अगड़-शब्द के कूप अथवा कूप के समीप पशुओं को जल पिलाने के लिये जो स्थान बनाया जाता है, वह " ऐसे दो अर्थ होते हैं । श्रवचल का अर्थ है - सर को नीचे और पांव को ऊपर करके लटका हुआ । बोलग - यह देश्य - देशविशेष में बोला जाने वाला पद है। जिस का अर्थ डूबना होता है और पज्जेति का अर्थ - पिलाता है । परन्तु प्रस्तुत में - बोलगं पज्जेति - यह लोकोक्ति-मुहावरा है जो गोते खिलाता (१) दुर्योधन चारकपाल जिस विधि से अपराधियों को दण्डित एवं fasम्बित किया करता था, उस का वर्णन मूलार्थ में पृष्ठ ३५५ पर किया जा चुका है । (२) नन्दीषेण के सम्बन्ध में कुछ पहले पृष्ठ ३४३ पर मूलार्थ में बतलाया जा चुका शेष आगे बतलाया जायगा । For Private And Personal तथा
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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