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अथ पष्ठ अध्याय
मानव के जीवन का निर्माण उस के अपने विचारों पर निर्भर हुआ करता है। विचार यदि निर्मल हों, स्वच्छ हों एवं धर्मपूर्ण हों तो जीवन उत्थान अथच कल्याण की अोर प्रगति करता है । इस के विपरीत यदि विचार अप्रशस्त हो, पापोन्मुखी हों तो जीवन का पतन होता है, और वे जन्म मरण की परम्परा को वढाने का कारण बनते हैं । दूसरे शब्दों में कहें तो-गिरते है जब ख्याल तो गिरता है आदमी । जिस ने इन्हें संभाल लिया वह संभल गया - यह कहा जा सकता है।
उन्नत तथा अवनत विचारों के आधार पर ही तत्त्वार्थ सूत्र के भाष्य की संबंधकारिका में आचार्यप्रवर श्री उमास्वाति सम्पूर्ण मानव जगत को छः विभागों में विभक्त करते हैं । वे छ: विभाग निम्नोक्त हैं
(१) उत्तमोत्तम'-जो मानव अात्मतत्त्व का पूर्ण प्रकाश उपलब्ध कर स्वयं कृतकृत्य हो चुका है, पूर्ण हो चुका है, तथापि विश्वकल्याण की पवित्र भावना से दूसरों को पूर्ण बनाने के लिये, अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य आदि उत्तम धर्म का उपदेश देता है, वह उत्तमोत्तम मानव कहलाता है। इस कोटि में अरिहन्त भगवान् आते हैं । अरिहन्त भगवान् केवल ज्ञान का प्रकाश प्राप्त कर निष्क्रिय नहीं हो जाते, प्रत्युत निःस्वार्थ भाव से संसार को धर्म का मधुर एवं सरस सन्देश देते हैं और सपथगामी बनाकर उस को आत्मश्रेय साधने का सुअवसर प्रदान करते हैं।
(२) उत्तम-जिस मानव की साधना लोक और परलोक दोनों की असक्ति से सर्वथा रहित एवं विशुद्ध आत्मतत्त्व के प्रकाश के लिये होती है । भौतिक सुख चाहे वर्तमान का हो अथवा भविष्य का, लोक का अथवा परलोक का, दोनों ही जिस की दृष्टि में हेय होते हैं । जिस का समग्र जीवन एक मात्र अात्मतत्त्व के प्रकाश के लिये सर्वथा बन्धन से मुक्त होने के लिये गतिशील रहता है । संसार का भोग चाहे चक्रवर्ती पद का हो अथवा इन्द्र पद का, परन्तु जो एकान्त निस्पृह एवं अनासक्त भाव से रहता है। संसार का कोई भी प्रलोभन जिसे वीतराग भाव की साधना के पवित्र मार्ग से एक क्षण के लिये भी नहीं भटका सकता. ऐसा मानव उत्तम कहलाता है। यह उत्तम पद उत्तम मुनि और उत्तम श्रावक में पाया जाता है।
(३) मध्यम-जो लोक की अपेक्षा परलोक के सुखों की अधिक चिन्ता करता है। परलोक को सुधारने के लिये यदि इस लोक में कुछ कष्ट भी उठाना पड़े, सुख सुविधा भी छोड़नी पड़े. तो इसके लिये जो सहर्ष तैयार रहता है । जो परलोक के सुख की आसक्ति से इस लोक के सुख की आसक्ति का त्याग कर सकता है। परन्तु वीतरागभाव की साधना में परलोक की सुखासक्ति का त्याग नहीं कर सकता। संसार की वर्तमान मोहमाया जिसे भविष्य के प्रति लापरवाह नहीं बना सकती। जो सुन्दर वर्तमान और सुन्दर भविष्य के चुनाव में सुन्दर भविष्य को चुनने का
(१) कविरत्न पण्डित मुनि श्री अमर चन्द्र जी म. द्वारा अनुवादित श्रमण सूत्र में से ।
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