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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पञ्चम अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित । घटना और उससे उत्पन्न होने वाले अपने मानसिक संकल्प का निवेदन करना, एवं निवेदन करने के बाद उक्त पुरुष के पूर्व भव को जानने की इच्छा का प्रकट करना, आदि सम्पूर्ण वर्णन पूर्व अध्ययनों में दिये गये वर्णन के समान ही जान लेना चाहिये । सारांश यह है कि पूर्व के अध्ययनों में यह सम्पूण वर्णन विस्तार - पूर्वक आ चुका है। उसी के स्मरण कराने के लिये यहां पर तहेव- इस पद का उल्लेख कर दिया गया है। जिस से प्रतिपाद्य विषय की अवगति भो हो जाय और विस्तार भी रुक जाय, एवं पिष्टपेषण भी न होने पावे । - तहेव जाव रायमगं- यहा के जाव-यावत् पद से विवक्षित पाठ की सूचना पृष्ठ २०७ पर कर दी गई है। परन्तु इतना ध्यान रहे कि वहां पुरिमताल नगर का नामोल्लेख है, जब कि यहां कौशाम्बी नगरी का । शेष वर्णन सम ही है। मूल में पढ़े गए चिन्ता शब्द से "-तते णं से भगवो गोतमस्त तं पुरिसं पासित्ता इमे अज्झत्थिर ५ समुपज्जित्था, अहो णं इमे पुरिसे जाव निरयपडिरूवियं वेयणं वेदेति- इन पदों का परिचायक है। इन पदों का अर्थ पृष्ठ १३२ पर लिखा जा चुका है । तथा तहेव- पद से जो विवक्षित है उस का उल्लेख पृष्ठ १३३ पर किया जा चका है। अन्तर मात्र इतना है कि वहां वाणिजग्राम नगर का उल्लेख है जब कि यहां कौशाम्बी नगरी का। तथा वहां श्री गौतम स्वामी ने वाणिजग्राम के राजमार्ग पर देखे दृश्य का वर्णन भगवान् को सुनाया था जब कि यहां कौशाम्बी नगरी के राजमार्ग पर देखे हुए दृश्य का । शेष वर्णन समान ही है। ___ अब सूत्रकार गौतमस्वामी द्वारा कौशाम्बी नगरी के राजमार्ग पर देखे गये एक वथ्य व्यक्ति के पूर्वभवसम्बन्धी प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने जो कुछ फ़रमाया उसका वर्णन करते हैं - मूल-'एवं खलु गोतमा ! तेणं कालेणं २ इहेब जम्बुद्दोवे दीवे भारहे वासे सव्वोभद्दे णाम णगरे होत्था, रिद्ध० । तत्थ णं सव्वोभद्दे णगरे जितसत्तू णाम राया होत्था । तस्स णं जितसत्तस्स रएणो महेसरदत्ते नाम पुरोहिए होत्था । रिउव्वेय-जजुब्वेयसामवेय-अथव्वणवेय-कुसले यावि होत्था । तते णं से महेसरदत्ते पुरोहिते जितसत्तस्स रएणो रज्जवलविवद्धणट्ठाए कल्लाकल्लिं एगमेगं माहणदारगं एगमेगं खत्तियदारगं (१) छाया-एवं खलु गौतम ! तस्मिन् काले २ इहैव जम्बूद्रोपे द्वीपे भारते वर्षे सर्वतोभद्रं नाम नगरमभवत्, ऋद्ध० । तत्र सर्वतोभद्रे नगरे जितशत्रुनौम राजाऽभूत् । तस्य जितशत्रोः राज्ञः महेश्वरदत्तो नाम पुरोहितोऽभूत् ऋग्वेद - यजुर्वेद – सामवेद -अथर्वणवेदकुशलश्चाप्यभवत् । तत: स महेश्वरदत्तः पुरोहितः जितशत्रोः राजः राज्यबलविवर्धनार्थं कल्याकल्यि एकैकं ब्राह्मणदारकम्, एकैकं क्षत्रियदारकम् , एकैकं वैश्यदारकम् , एकैकं शूद्रदारक ग्राहयति २ तेषां जीवतामेव हृदयमांसपिंडान् ग्राहयति २ जितशत्रोः राज्ञः शान्तिहोमं करोति । ततः स महेश्वरदत्तः पुरोहितः अष्टमीचतुर्दशीषु द्वौ २ ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य-शूद्रदारको , चतुर्यु मासेषु चतुरः २, षट सु मासेषु अष्ट २. संवत्सरे षोडश २ । यदा कदापि च जितशत्रु : राजा परबलेनापि युध्यते तदा तदापि च स महेश्वरदत्त: पुरोहितः अंष्टशतं ब्राह्मणदारकाणाम् , अष्टशतं क्षत्रियदारकाणाम् , अष्टशतं वैश्यदारकाणाम्, अष्टशतं शूद्रदारकाणाम् पुरुषेहियति २ तेषां जीवितामेव हृदयमांसपिंडान् ग्राहयति २ जितशत्रो: राज्ञः शान्तिहोमं करोति । ततः स परबलं क्षिप्रमेव विध्वंसयति वा प्रतिषेधयति वा । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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