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श्री विपाक सूत्र
[चतुर्थ अध्याय
प्रवृत्ति करना महारम्भ कहलाता है ।
(२) महापरिग्रह-वस्तुओं पर अत्यन्त मूर्छा -आसक्ति महापरिग्रह कहा जाता है। (३) पञ्चेन्द्रियवध -५ इन्द्रियों वाले जीवों की हिंसा करना पंचेन्द्रियवध है। (४) कुणिमाहार-कुणिम अर्थात् मांस का आहार करना कुणिमाहार कहलाता है।
इन कारणों में मांसाहार को स्पष्टरूप से नरक का कारण माना है, और उसो सूत्र के आय बन्धकारणप्रकरण में प्राणियों पर की जाती दया और अनुकम्पा के परिणामों को मनुष्याय के बन्ध का कारण माना है । जैनशास्त्रों में ऐसे एक नहीं, अनेकों उदाहरण उपलब्ध होते है. जिन में मांसाहार को दुर्गतिप्रद बता कर उसके निषेध का विधान किया गया है और उसके त्याग को देवदुर्लभ मानवभवं का तथा परम्परा से निर्वाणपद का कारण बता कर बड़ा प्रशंसनीय संसूचित किया है।
जैनधर्म की नींव ही अहिंसा पर अवस्थित है । किसी प्राणी की हत्या तो दूर की बात है वह तो किसी प्राणी के अहित का चिन्तन करना भी महापाप बतलाता है । अस्तु, 'जैनशास्त्र तो मांसाहार के त्याग की ऐसी उत्तमोत्तम शिक्षाओं से भरे पड़े हैं किन्तु जैनेतर धर्मशास्त्र भी इस का अर्थात मांसहार का पूरे बल से निषेध करते हैं । उन के कुछ प्रमाण निम्नोत हैं- ।
(१) नकिर्देवा मिनीमसी न किरा योपयामसि । (ऋग्वेद-१०-१३४-७) अर्थात् हम न किसी को मारें और न किसी को धोखा दें ।
(२) सर्वे वेदा न तत्कुयुः सवें यज्ञाश्च भारत! । सवें तीर्थाभिषेकाश्च, यत् कुर्यात् प्राणिनां दया ॥१॥ (महा० शा० पर्व प्रथमपाद)
अर्थात् हे अजुन ! जो प्राणियों की दया फल देती है वह फल चारों वेद भी नहीं देते और न समस्त यज्ञ देते हैं तथा सम्पूर्ण तीर्थों के स्नान भी वह फल नहीं दे सकते है।
अहिंसा लक्षणो धर्मो, ह्यधर्मः प्राणिनां वधः।।
तस्माद् धर्माथिभिर्लोकः, कर्तव्या प्राणिनां दया ॥२॥
अर्थात् दया ही धर्म है और प्राणियों का वध ही अधर्म है। इस कारण से धार्मिक पुरुषों को सदा दया ही करनी चाहिये, क्योंकि विष्ठा के कीड़ों से लेकर इन्द्र तलक सब को जीवन की अाशा और मृत्य से भय समान है।
यावन्ति पशुरोमाणि, पशुगात्रेषु भारत ! ।
तावद् वर्षसहस्राणि, पच्यन्ते पशुधातकाः ॥ ३ ॥
अर्थात् हे अर्जुन ! पशु के शरीर में जितने रोम होते हैं, उतने हज़ार वर्ष पशु का घात करने वाले नरकों में जाकर दुःख पाते हैं ।
लोके यः सर्वभूतेभ्यो, ददात्यभयदक्षिणाम् ।
स सर्वयझेरीजानः प्राप्नोत्यभयदक्षिणाम् ॥४॥ अर्थात् इस जगत में जो मनुष्य समस्त प्रणियों को अभयदान देता है वह सारे यज्ञों का अनुष्ठान कर चुकता है और बदले में उसे अभयत्व प्राप्त होता है।
(४) वर्षे वर्षे अश्वमेधेन, यो यजेत शतं समाः ।
मांसानि न च खादेत् , यस्तयोः पुण्यफलं समम् ॥५३॥ (मनु० अध्या. ५)
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