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चतुर्थ अध्याय ]
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
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शकट कुमार अपनी परमप्रिया सुदर्शना को पुनः प्राप्त कर अत्यन्त हर्षित हो रहा है, तथा अपने सद्भाग्य की सराहना करता हुआ वह नहीं थकता। परन्तु उस विचारे को यह पता नहीं था कि यह प्रसन्नता मधुलिप्त असिधारा से भी परिणाम में अत्यन्त भयावह होगी और उसका यह हर्ष भी शोकरूप में परिणत हुअा ही चाहता है।
पाठकों को स्मरण होगा कि मंत्री सुषेण ने अपने सत्ताबल से सुदर्शना गणिका के घरसे उसकी इच्छा के बिना ही शकट कुमार को बाहिर निकाल कर उसे अपने घर में अपनी स्त्री के रूप में रख लिया था । परन्तु शकट कुमार अवसर देखकर गुप्तरूप से सुदर्शना के पास पहुंच गया
और पूर्व की भान्ति गुप्तरूप से उसके सहवास में रहता हुआ यथारुचि विषय-भोगों में आसल हुआ सानन्द समय यापन करने लगा। । इधर एक दिन सुषेण मंत्री जब सुदर्शना के घर में पहुंचा तो उसने वहां शकट कुमार को देख लिया। उसे देखते ही मत्री के क्रोध का पारा एक दम ऊपर जा चढ़ा। क्रोध के मारे उस का मुख और नेत्र लाल हो उठे। उसने दान्त पीसते हुए क्रोध के आवेश में आकर अपने अनुचरों को उसे-शकट कुमार के पकड़ने और पकड़ कर बांधने तथा अधिक से अधिक पीटने की आज्ञा दी। तदनुसार पकड़ने, बांधने और मारने के बाद उसे महाराज महाचन्द्र के पास है जाया गया । महाराज महाचन्द्र के मन्त्री को ही दण्डसम्बन्धी समस्त अधिकार दे देने पर तथा मन्त्री के द्वारा महान् अपराधी ठहरा कर एवं सारे शहर में फिरा कर उसके वध करा डालने का आयोजन किया गया।
जैसा कि प्रथम बतलाया गया है कि जिस व्यक्ति के हाथ में सत्ता हो और साथ में वह कामी एवं विषयी भी हो तब उससे जो कुछ भी अनर्थ बन पड़े वह थोड़ा है। कामी पुरुष का ऐसा करना स्वाभाविक ही है । जिस व्यक्ति पर वह आसक्त हो रहा है उसका कोई ओर प्रेमी उसे एक अांख भी नहीं भाता । फिर यदि उसके हाथ में कोई राजकीय सत्ता हो तब तो वह उसे यमालय में पहुँचाये बिना कभी छोड़ने का ही नहीं । कामी पुरुषों में ईर्षा की मात्रा सबसे अधिक होती है। कामासक्त व्यक्ति अपने प्रेम -भाजन पर किसी दूसरे का अणुमात्र भी अधिकार सहन नहीं कर सकता है और वास्तव में एक वस्तु के जहां दो इच्छुक होते हैं वहां पर सर्वदा एक के अनिष्ट की संभावना बनी ही रहती है। दोनों में जो बलवान् होता है उसका ही उस पर अधिकार रहा करता है। निर्बल व्यक्ति यातो द्वन्द्व से परास्त हो कर भाग जाता है अथवा प्राणों की श्राहति दे कर दूसरों के लिये शिक्षा का आदर्श छोड़ जाता है। मंत्री सुषेण कब चाहता था कि जिस रमणी के सहवास के लिये वह चिरकाल से आतुर हो रहा था, उसमें कोई दूसरा भी भागीदार बने । इसी कारण उसने शकट कुमार और साथ में शकट कुमार को तिरस्कृत न करके प्रत्युत उसके सहवास से अानन्दविभोर होने के अपराध में सदर्शना को भी कठोर से कठोर दंड दिया जिस का वणन ऊपर किया जा चुका है।
तब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने गौतम स्वामी से कहा कि गौतम ! इस प्रकार यह छरिणक छार्गालक का जीव अपने पूर्वोपार्जित अशुभ कर्मों का फल भोगने के लिये चौथी नरक में गया और वहां भीषण नारकीय यातनाएं भोग लेने के अनन्तर भी शकट कुमार के रूप में अवतीर्ण होकर इस दशा को प्राप्त हो रहा है। सारांश यह है कि इस समय उस के साथ जो कुछ हो रहा है वह उसके पूर्वोपार्जित अशुभ कर्मों का ही परिणाम है।
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