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३००]
श्री विपाक सूत्र -
[चतुर्थ अध्याय
दोनों पदों का अर्थगत भेद निम्नोक्त हैं -
(१) जातनिंदुका-उत्पन्न होते ही जिस की सन्तति मृत्यु को प्राप्त हो जाए उसे जातनिंदुका कहते हैं ।
(२) जातिनिंदुका-जाति-जन्म से ही जो निंदुका - मृतवत्सा है, अर्थात् जन्मकाल से ही जो मृतवत्सात्व के दोष से युक्त है ।
तथा निंदुका शब्द का अर्थ कोषकारों के शब्दों में-निंद्यते अप्रजात्वेनाऽसौ निंदुः, निदुरेव निंदुका-इस प्रकार है । अर्थात् सन्तान के जीवित न रहने से जिस की लोगों द्वारा निंदा की जाए वह स्त्री निंदुका कहलाती है ।
"-गणिर अभिंतरए ठवेति-इस वाक्य के दो अर्थ उपलब्ध होते हैं जैसे कि
(१) गणिका को अभ्यन्तर -भीतर स्थापित कर दिया अर्थात् गणिका को पत्नीरूप से अपने घर में रख लिया । (२) गणिका को भीतर स्थापित कर दिया अर्थात् उसे उसके घर के अन्दर ही रोक दिया, जिस से कि उस के पास कोई दूसरा न जा सके ।
इन अर्थों में प्रथम अर्थ अधिक संगत प्रतीत होता है । क्योंकि आगे के प्रकरण में एवं खलु सामी ! सगड़े दारए ममं अन्तेउरंसि अवरद्ध -ऐसा उल्लेख मिलता है । इस पाठ में स्पष्ट लिखा है कि मंत्री ने राजा के पास शिकायत करते हुए अपने अन्तःपुर का वर्णन किया है, जोकि ऊपर के पहले अर्थ का समर्थक ठहरता है । तथा जो आगे - जेणेव सुदरिसणागणियाए गिहे तेणेव- ऐसा लिखा है। इससे सूत्रकार को यही अभिमत है कि सुदर्शना जहां रहता था, वहां । तात्पर्य यह है कि जब सुषेण मन्त्री ने गणिका को अपनी अर्धांगिनी ही बना लिया, तब सूत्रकार ने-जहां सुदर्शना का घर था - ऐसा उल्लेख क्यों किया ?, ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये । क्योंकि इससे सूत्रकार को मात्र जो सुदर्शना को निवास करने के लिये स्थान दे रखा था, वही सूचित करना अभिमत है।
-उज्झियर, जाव जम्हा - यहां पठित जाव-यावत् पद से-तए णं दस्स दारगस्स अम्मापियरो ठिइवडियं च चंदसूरदसणं - से लेकर –गोरणं गुणनिष्फन्नं नामधेज्जं करति--इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन का अर्थ पृष्ठ १५७ पर दिया जा चुका है । मात्र नाम की भिन्नता है। वहां उज्झितक कुमार का नाम है जब कि यहां शकट कुमार का।।
-सिंघाडग० तहेव जाव सुदरिसणार- यहां का बिन्दु-तिग-च उक-चच्चर महापहपहेसु-इन पदों का तथा-जाव-यावत् पद -जूयखलएसु वेसियाघरपसु-से ले कर -- अनया कयाइ--यहां तक के पाठ का परिचायक है । इन पदों का अर्थ पृष्ठ १६६ तथा १६७ पर दिया गया है। अन्तर केवल इतना है कि प्रस्तुत में शकट कुमार का वर्णन है जब कि वहां उज्झितक कुमार का।
-भदाए भारियाए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उयवन्ने - इस पाठ के अनन्तर श्रद्धेय पण्डित मुनि श्री घासी लाल जी म. सार्थवाही भद्रा के दोहद का भी उल्लेख करते हैं । वह दोहदसम्बन्धी पाठ निम्नोक्त है
-तए णं तीसे भद्दार सत्यवाहीए अन्नया कयाइ तिराहं मासाणं बहुपडिपुराणाणं इमे एयारूवे दोहले पाउन्भूए-धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ, सपुरणाश्रो णं कयत्या या णं जाव सुलद्ध तासिं माणुस्सए जम्मजीवियफले जाओ णं बहूणं णाणाविहाणं नयरगोरूवाणं पसूण य जलयरथलयर-खहयरमाईणं परवीण य बहूहिं मंसेहि तलिएहिं भज्जिरहिं सोल्लेहिं सद्धिं सुरं च महुं च मेरगं च जाइ च सीहुं च पसन्नं च आसाएमाणीओ विसा
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