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तीसरा अध्याय]
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
२६७
महब्बलस्त-महाबल । रराणो-राजा के पास । उवणे ति-उपस्थित कर देते हैं । तते णं-तदनन्तर महब्बले-महाबल । राया-राजा । अभग्गसेणं-अभग्नसेन । चारसे०-चोरसेनापति को । एतेणं विहाणेणं - इस (पूर्वोक्त) विधान -प्रकार से । वज्झ-यह मारा जाए-ऐसी । आणवेति-राजपुरुषों को आज्ञा देता है । एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही । गोतमा!-हे गौतम ! | अभग्गसेणे-अभग्नसेन चोरसेणावती-चोरसेनापति । पुरा-पूर्वकृत । पुराणाणं जाव-पुराने दुष्कर्मा का यावत् प्रत्यक्ष फल भोगता हुआ । विहरति - जीवन बिता रहा है ।
मूलार्थ- तदनन्तर अभग्नसेन को सत्कारपूर्वक कूटाकारशाला में ठहराने के बाद महाबल नरेश ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुला कर इस प्रकार कहा कि हे भद्र पुरुषो! तुम लोग जाओ, जाकर पुरिमताल नगर के दर्वाजों को बन्द कर दो और चोरपल्ली के चोरसेनापति को जीते जी (जीवित दशा में ही) पकड़ लो, पकड़ कर मेरे पास उपस्थित करो।
तदनन्तर उन कौटुम्बिक पुरुषों ने राजा की इस आज्ञा को दोनों हाथ जोड़ कर मस्तक पर दस नखों वाली अजलि करके शिरोधार्य किया और पुरिमताल नगर के द्वारों को बन्द करके चोरसेनापति को जीते जी पकड़ कर महाबल नरेश के सामने उपस्थित कर दिया। तदनन्तर महाबल नरेश ने अभग्नसेन नामक चोरसेनापति को इस (पूर्वोक्त पृष्ठ २०६ पर लिखे) प्रकार से यह मारा जाए-ऐसी आज्ञा प्रदान कर दी।
___ श्रमण भगवान महावीर स्वामी कहते हैं कि हे गौतम ! इस प्रकार निश्चित रूप से वह चोरसेनापति अभग्नसेन पूर्वोपार्जित पुरातन पापकर्मों के विपाकोदय से नरक-तुल्य वेदना का प्रत्यक्ष अनुभव करता हुआ समय बिता रहा है।
टीका-प्रस्तुतसूत्र में चोरपल्ली के सेनापति अभमसेन से युद्ध में दण्डनायक सेनापति के पराजित हो जाने पर मन्त्रियों के परामर्श से साम, दान और भेदनीति का अनुसरण करके महाबल नरेश ने अभग्नसेन का जिस प्रकार से निग्रह किया, उस का दिग्दर्शन मात्र कराया गया है ।
महाबल नरेश ने जो कुछ किया वह धार्मिक दृष्टि से तो भले ही अनुमोदना के योग्य न हो परन्त राजनीति की दृष्टि से उसे अनुचित नहीं कह सकते । एक आततायी अथच अत्याचारी का निग्रह जिस तरह से भी हो, कर देने की नीतिशास्त्र की प्रधान आज्ञा है। अभग्नसेन जहां शरवीर और साहसी था, वहां वह लुटेरा, डाकू और आततायी भी था, अतः जहां उसे वीरता के लिये नीतिशास्त्र के अनुसार प्रशंसा के योग्य समझा जाए वहां उस के अत्याचारों को अधिक से अधिक निन्दास्पद मानने में भी कोई आपति नहीं हो सकती ।
नीतिशास्त्र का. कहना है कि जो राजा निरपराध और आततायियों के अत्याचारों से पीडित प्रजा की पुकार को सुन कर उस के दुःख निवारणार्थ अत्याचार करने वालों को शिक्षा नहीं करता,
नहीं देता. वह कभी भी शासन करने के योग्य नहीं ठहराया जा सकता । इसी लिये नीति
के मर्मज्ञ महाबल नरेश ने अभमसेन चोरसेनापति का निग्रह करने के लिये राजपुरुषों को बुला कर आज्ञा दी कि भद्रपुरुषो ! अभी जाओ और जा कर पुरिमताल नगर के द्वार बन्द कर दो तथा कुटाकारशाला में अवस्थित अभग्नसेन चोरसेनापति को बन्दी बना कर मेरे सामने उपस्थित करो, परन्तु इतना ध्यान रखना कि तुमारा यह काम इतनी सावधानी और तत्परता से होना चाहिए कि अभग्नसेन जीवित ही पकड़ा जाए, कहीं वह अपने को असहाय पा कर आत्महत्या न कर डाले।
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