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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तीसरा अध्याय] हिन्दी भाषा टीका सहित । [२५९ रराणा- राजा ने। उस्तुक्के-उच्छुल्क । जाव-यावत् । दसरत-दस दिन का। पमोदे - प्रमोदउत्सव । उग्घोसिते-उद्घोषित किया है, । तं-इस लिये । देवाणु० !-हे महानुभाव ! । किरणं-क्या । विपुलं-विपुल । असणं ४-अशन, पान, खादिम और स्वादिम तथा । पुष्फ-पुष्प । वत्थ-वस्त्र । गंध-सुगंधित द्रव्य । मल्लालंकारे-माला और अलंकार-भूषण । इह-यहां पर ही। हव्वमाणेज्जाशीघ्र लायें । उयाहु-अथवा । सयमेव-आप स्वयं ही । गच्छिज्जा - पधारेंगे । । तते णं तदनन्तर । कोड बियपुरिसा-कौटुम्बिक पुरुषों ने । महब्बलस्स-महाबल । रराणो-राजा की, उक्त आज्ञा को। कर- दोनों हाथ जोड़ मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि करके । जाव-यावत् स्वीकार किया और वे। परिमतालाओ-पुरिमताल । णगराओ-नगर से । पडिनिक्खमंति २-निकलते हैं, निकल कर। जातिविकिडेहि-नातिविकृष्ट- जोकि ज़्यादा लम्बे नहीं, ऐसे । श्रद्धाणेहिं- प्रयाणकों-यात्राओं से । सुहेहि-सुखजनक । वसहिपायरासेहिं-विश्रामस्थानों तथा प्रातःकालीन भोजनों द्वारा । जेणेव-जहां। सालाडवी-शालाटवी । चोरपल्ली-चोरपल्ली थी । तेणेव-वहां पर । उवा०२-श्रा जाते हैं, अाकर । अभग्गसेणं-अभग्नसेन । चोरसेणावति-चोरसेनापति को । करयल० जाव-दोनों हाथ जोड़ यावत् अर्थात् मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि करके अर्थात् विनयपूर्वक । एवं वयासी-इस प्रकार कहने लगे। एवं इस प्रकार । खलु-निश्चय से । देवाणु० ! हे महानुभाव ! । पुरिमताले-पुरिमताल । णगरेनगर में । महब्बलेण-महाबल । रराणा- राजा ने । उस्सुक्के-उच्छुल्क । जाव-यावत् दश दिन का प्रमोद-उत्सव आरंभ किया है, तो क्या आप के लिये अशनादिक यहां पर लाया जाये । उदाहु-अथवा। सयमेव-आप स्वयं ही वहां । गच्छिज्जा !-पधारेंगे।। तते णं-तदनन्तर । से-वह । अभग्गअभग्नसेन । चोरसे०-चोरसेनापति । कोडुबियपुरिसे-उन कौटुम्बिक पुरुषों को। एवं वयासी-इस प्रकार बोले । देवाणु० !-हे भद्र पुरुषो !। अहरणं-मैं। पुरिमतालं णगरं-पुरिमताल नगर को । सयमेव-स्वयं ही । गच्छामि-चलगा, ऐसे कह कर । ते-उन । कोडुबियपुरिसे-कौटुम्बिक पुरुषों का । सक्कारेति २-सत्कार करता है, करके । पडिविसज्जेति-उन को बिदा करता है। मूलार्थ-तदनन्तर किसी अन्य समय महाबल नरेश ने पुरिमताल नगर में प्रशस्त एवं बड़ी विशाल और १ प्रासादोय-मन में हर्ष उत्पन्न करने वाली, २ दर्शनीय-जिसे देखने पर भी आखें न थकें, ३ अभिरूप-जिसे देखने पर भी पुनः दर्शन की इच्छा बनी रहे और ४ प्रतिरूप-जिसे जब भी देखा जाय, तब ही वहां कुछ नवीनता प्रतिभासित हो, ऐसो सैकड़ों स्तम्भों वाली एक कूटाकारशाला बनवाई । तदनन्तर महाबल नरेश ने किसी समय पर (उस के निमित्त) उच्छुल्क यावत् दशदिन के उत्सव की उद्घोषणा कराई और कौटुम्बिक पुरुषों को बुला कर वे कहने लगे, हे भद्रपुरुषो! तुम शालाटवी चोरपल्ली में जाओ, वहां अभग्नसेन चोरसेनापति से दोनों हाथ जोड़ मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि कर के इस प्रकार निवेदन करो हे महानुभाव ! पुरिमताल नगर में महाबल नरेश ने उच्छुल्क यावत् दस दिन पर्यन्त प्रमाद-उत्सवविशेष की उद्घोषणा कराई है तो क्या आप के लिये विपुल अशनादिक और पुष्प, वस्त्र, माला तथा अलंकार यहीं पर उपस्थित किये जाएं अथवा आप स्वयं वहां पधारेंगे ? तदनन्तर वे कौटुम्बिक पुरुष महाबल नरेश की इस आज्ञा को दोनों हाथ जोड़ मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि करके अर्थात् विनयपूर्वक सुन कर तदनुसार पुरिमताल नगर से निकलते हैं और छोटी छोटी यात्राएं करते हुए तथा सुखजनक विश्रामस्थानों एवं प्रातःकालीन भोजनों For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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