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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra तीसरा अध्याय ] www.kobatirth.org 66 हिन्दी भाषा टीका सहित । [ २५७ -धरणकणगरयण सन्तसारसावतेज्जेणं - " इस समस्त पद में धन, कनक, रत्न, सत् - सार, स्वापतेय, ये पांच शब्द हैं । धन सम्पत्ति का नाम है । कनक रत्न का अर्थ है - वह छोटा, चमकीला वहुमूल्य खनिज पदार्थ, जिस का में जड़ने के लिये होता है । सत्सार शब्द दुनियां की सब से उत्तम वस्तु के लिये प्रयुक्त होता है और स्वापतेय शब्द रुपए पैसे आदि का परिचायक है । सुवर्ण को कहते हैं । उपयोग आभूषणों आदि, महत्थाई - इत्यादि पदों की व्याख्या वृत्तिकार के शब्दों में निम्नोक्त है Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir - " - महत्थाई - " महाप्रयोजनानि " महग्घाई" महामूल्यानि "महरिहाइ" महतां योग्यानि महं वा - - पूजामर्हन्ति महान् वा, ग्रहः पूजा येषां तानि तथा एवं विधानि च कानिचित् केषांचित् योग्यानि भवन्तीत्यत श्राह - "रायारिहाई” राज्ञामुचितानि । अर्थात् जिस का कोई महान् प्रयोजन - उद्देश्य हो उसे महार्थ कहते हैं, और अधिक मूल्य वाले को महार्घ कहा जाता है । महाई पद के तीन अर्थ होते हैं, जैसे कि – (१) विशेष व्यक्तियों के योग्य वस्तु महाई कही जाती है । ( २ ) जो पूजा के योग्य हो उसे महाई कहते हैं । ( ३ ) जिन की महती पूजा हो वे महाई कहलाते हैं महार्थ महार्घ और महाई ये वस्तुएं तो अन्य कई एक के योग्य भी ही सकती हैं, इस लिये महावल नरेश ने अभग्नसेन की मान प्रतिष्ठा के लिये उसे राजाई - राजा लोगों के योग्य उपहार भी प्रेषित किये । प्रस्तुत सूत्र में दंडनायक के युद्ध में परास्त होने पर मन्त्रियों के सुझाव से प्रभग्नसेन के निग्रह के लिये महाबल नरेश ने जो उपाय किया और उस में उन्हों ने जो सफ़लता भी प्राप्त की उस का वर्णन किया गया है । अब अग्रिम सूत्र में महाबल नरेश द्वारा अभग्नसेन के निग्रह के लिये किये जाने वाले उपायविशेष का वर्णन करते हैं गरे एगं महं मूल - १ तते गं से महब्चले राया अन्नया कयाइ पुरिमताले महतिमहालियं कूड़ागारसालं करेति, अणेगखं भसतसंनिविट्ठ पासाइयं ४ । तते गं से महब्बले राया अन्नया कयाइ पुरिमताले नगरे उस्सुक्कं जाव दसरतं पमोयं उग्घोसावे ति (१) छाया - ततः स महाबली राजा अन्यदा कदाचित् पुरिमताले नगरे एकां महतीं महातिमहालिकां (महातिमहतीं ) कूटाकारशालां करोति, अनेकस्तम्भशतसंनिविष्टां प्रासादीयां ४ । ततः स महाचलो राजा अन्यदा कदाचित् पुरिमताले नगरे उच्छुल्कं यावद् दशरात्रं प्रमोदमुद्घोषयति २ कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति २ एवमवादीत् - गछत यूयं देवानुप्रियाः ! शालाटव्यां चोरपल्ल्यां, तत्र यूयं अभग्नसेनं चोरसेनापतिं करतल० यावदेवं वदत - एवं खलु देवानुप्रिया ! पुरिमताले नगरे महाबलेन राज्ञा उच्छुल्को यावत् दशरात्रः प्रमोदः उद्घोषितः तत् किं देवानुप्रियाः ! विपुलमशनं ४ पुष्पवस्त्रगंधमाल्यालंकारं चेह शोघ्रमानीयताम्, उताहो स्वयमेव गमिष्यथ १ ततः कौटु त्रिकपुरुषाः महाबलस्य राज्ञः कर० यावत् पुरिमतालाद् नगराद् प्रतिनिष्क्रामति २ नातिविकृष्ट : अध्वाने: (प्रयाणकैः) सुखैः वसतिप्रातराशैः, य शालाटवी चोरपल्ली तत्रैवोपागताः २ भग्नसेनं चोरसेनापतिं करतल • यावदेवमवादिषुः - एवं खलु देवानुप्रिया ! पुरिमताले नगरे महाबलेन राज्ञा उच्छुल्को यावत्, उताहो स्वयमेव गमिष्यथ । ततः सोऽभग्नसेनश्वोरसेनापतिस्तान् कौटुम्बिकपुरुषान् एवमवदत् - श्रहं देवानुप्रिया ! पुरिमतालं नगरं स्वयमेव गच्छामि । तान् कौटुबिकपुरुषान् सत्कारयति २ प्रतिविसृजति । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
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