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ती मग अध्याय]
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
कुछ समय के बाद विचारशील महाबल नरेश ने अपने सुयोग्य मन्त्रियों से विचार विनिमय करना प्रारम्भ किया । मन्त्रियों ने बड़ी गम्भीरता से विचार करने के अनन्तर महाबल नरेश के सामने एक प्रस्ताव रखा । वे कहने लगे महाराज ! नीतिशास्त्र की तो यही अाज्ञा है कि जहां दण्ड सफल न हो सके वहां साम, भेद, दानादि का अनुसरण करना चाहिये । अतः हमारे विचारों में यदि आप उसे -अभग्नसेन को पकड़ना ही चाहते हैं तो उसके साथ दण्डनीति से न काम ले कर साम, भेद अथवा उपप्रदान की नीति से काम लें
और इन्हीं नीतियों द्वारा उसे विश्वास में ला कर पकड़ने का उद्योग करें । मन्त्रियों की इस बात का महाबल नरेश के हृदय पर काफी प्रभाव पड़ा और उन्हें यह सुझाव सुन्दर जान पड़ा तब उन्होंने मन्त्रियों के बतलाये हुए नीति - मार्म के अनुसरण की ओर ध्यान दिया और उस में उन्हें सफलता की कुछ अाशाजनक झलक भी प्रतीत हुई। इसी लिये दण्डनीति के प्रयोग की अपेक्षा उन्होने साम, दान और भेद नीति का अनुसरण ही अपने लिये हितकर समझा और तदनुसार अभमसेन को प्रसन्न करने का तथा उसे विश्वास में लाने का आयोजन प्रारंभ कर दिया और उसके विश्वासपात्र सैनिकों तथा अन्य सम्बन्धिजनों को वे अनेक प्रकार के प्रलोभनों द्वारा उस से पृथक करने का उद्योग भी करने लगे । एवं अभमसेन की प्रसन्नता के लिये समय समय पर उसे विविध प्रकार के बहुमूल्य पुरस्कार भी भेजे जाने लगे जिस से कि उस के साथ मित्रता का गाढ सम्बन्ध सूचित हो सके । सारांश यह है कि अभग्नसेन के हृदय से यह भाव निकल जाये कि महाबल नरेश की उस के साथ शत्रुता है, प्रत्यत उसे यही आभास हो कि महाबल नरेश उस का पूरा २ मित्र है, इसके अतिरिक्त उसे यह भी भान न हो कि जिन सैनिकों तथा मंत्रीजनों के भरोसे पर वह अपने आप को एक शक्तिशाली व्यक्ति मान रहा है और जिन पर उसे पूर्ण भरोसा है वे अब उस के आज्ञानुसारी नहीं रहे अर्थात् उसके अपने नहीं रहे और समय आने पर उस की सहायता के बदले उस का पुरा २ विरोध करेंगे।
महाबल नरेश तथा उनके मन्त्री श्रादि ने जिस नीति का अनुसरण किया उस में वे सफल हुए और उन के इस नोतिमूलक व्यवहार का अभनपेन पर यह प्रभाव हा कि वह महाबल नरेश को शत्र के स्थान में मित्र अनुभव करने लगा।
“अथामे"-इत्यादि पदों की व्याख्या वृत्तिकार के शब्दों में - "अथामे, तथाविधस्थामवर्जितः "-अबले ति"- शरीरबलवर्जितः, “- अवीरिए ति"-जीववीयरहितः" - अपरिसक्कारपरक्कमे त्ति'- पुरुषकार : पौरुषाभिमान : स एव निष्पादितस्वप्रयोजनः पराक्रमः, तयोनिषेधादपुरुषकारपराक्रमः । "अधारणिज्जमिति कह"-अधारणीयं धारयितुमशक्यं, परबलं स्थातु वा शक्य- मिति कृत्वा इति हेतो : । इस प्रकार है अर्थात् अस्थामा इत्यादि चारों पद दण्डसेनापति के विशेषण हैं । इम का अर्थ अनुक्रम से निम्नोक्त है
(१) अस्थामा-तथाविध-युद्ध के अनुरूप स्थाम - मनोबल से रहित । (२) अबल-शारीरिक शक्ति से रहित । (३) अवीर्य-जीववीर्य-आत्मबल से विहीन । (४) -अपरुषकारपराक्रमपुरुषत्व का अभिमान-मैं पुरुष हूं, मेरे आगे कौन ठहर सकता है, इस प्रकार का आत्माभिमान, पुरुषकार कहलाता है, उस से जो स्वकार्य में सफलता होती है, उस का नाम पराक्रम है. तब पुरुषकार और पराक्रम से हीन व्यक्ति अपुरुषकारपराक्रम कहा जाता है।
तथा “ अधारणिज्जं" इस पद के दो अर्थ होते हैं-(१) शत्रु की सेना अधारणीय-पकड़ में न आने वाली (२) शत्रु की सेना के सन्मुख ठहरा नहीं जा सकता । इति क्रत्वा का अर्थ है
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