SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 331
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तीसरा अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [२४३ शुरुप्त - शौघ्र क्रोध से परिपूर्ण हुआ । जाव - यावत् । मिसिमिसीमाणे - क्रोधातुर होने पर किये जाने वाले शब्दविशेष का उच्चारण करता हुआ अर्थात् मिसमिस करता हुआ दांत पीसता हुआ । तिवलियं भिउडिं त्रिवलिका - तीन रेखाओं से युक्त भृकुटि - - भ्र भंग को । निडाले - मस्तक पर । साहहु – धारण कर के । दंडं' – दंडनायक - कोतवाल को । सेावेति २ - बुलाता है, बुला कर । एवं वयासी - इस प्रकार कहता है । देवाणुपिया ! – हे देवानुप्रिय ! अर्थात् हे भद्र ! तुमं - तुम । गच्छुह णं—जाओ, जाकर सालाडविं- शालाटवी । चोरपल्लिं - चोरपल्ली को । विलु पाहि२ - नष्ट कर दो - लूट लो लूट कर के । अभग्गसेणं - मनसेन नामक । चोरसंणावई - चोरसेनापति को । जीवग्गा हूं - जीते जी गेरहाहि २ – पकड़ लो, पकड़ कर मम मेरे पास उवणेहिउपस्थित करो । तते णं तदनन्तर । से दंडे - वह दण्डनायक । विणपणं - विनयपूर्वक । तह त्ति-तथा 1 - 1 ऽस्तु - ऐसे ही होगा, कह कर । एयमहं - इस आज्ञा को । पडिसुखेति - स्वीकार करता है । तते गं - तदनन्तर । से दराडे - वह दण्डनायक । सन्नद्ध० - दृढ बन्धनों से बन्धे हुए और लोहमय कसूलक आदि से युक्त कवच को धारण किये हुए। जाव - यावत् । पहरणेहिं = श्रायुधों और प्रहणों को धारण करने वाले । बहूहिं - अनेक । पुरिसेहिं - पुरुषों के । सद्धि - साथ । संपरिवुडे - सम्परिवृत - घिरा हुआ। मगइरहिं - हाथ में बान्धी हुई । फलरहिं – फलकों - ढालों से । जाव - यावत् । छिप्पतूरेणं वज्जमाणेणं - क्षिप्रतूर्य नामक वाद्य को बजाने से । महया - महान् । उक्किट्ट० - उत्कृष्ट - श्रानन्दमय महाध्वनि तथा सिंहनाद आदि शब्दों द्वारा | जात्र- यावत् - समुद्र के शब्द को प्राप्त हुए के समान आकाश को शब्दायमान । करेमाणे - करता हुआ । पुरिमतालं - पुरिमताल | गगरं - नगर के । मज्झमज्भेणं - मध्य में से । निग्गच्छति २ त्ता- निकलता है, निकल कर । जेणेव - जिधर । सालाडवी - शालाटवी । चोरपल्ती - चोरपल्ली थी । 1 तेणेव - उसी तरफ उसने । पहारेत्थ गमणाए - जाने का निश्चय किया । मूलार्थ - महाबल नरेश अपने पास उपस्थित हुए उन जानपदीय - देश के वासी पुरुषों के पास से उक्त वृत्तान्त को सुन कर क्रोध से तमतमा उठे तथा उस के अनुरूप मिसमिल शब्द करते हुए माथे पर तिउड़ी चढ़ा कर अर्थात क्रोध को सजीव प्रतिमा बने हुए दण्डनायक - कोतवाल को बुलाते हैं, बुला कर कहते हैं कि हे भद्र ! तुम जाओ, और जा कर शालाटवी चोरपल्ली को नष्ट भ्रष्ट कर दो-लूट लो और लूट करके उस के चोर सेनापति अभग्नसेन को जीते जी पकड़ कर मेरे सामने उपस्थित करो । दण्डनायक महाबल नरेश की इस आज्ञा को विनय - पूर्वक स्वीकार करता हुआ दृढ़ बन्धनों से बन्धे हुए और लोहमय कसूलक आदि से युक्त कवच को धारण कर यावत् श्रयुधों और प्रहरणों से लैस हुए अनेक पुरुषों को साथ ले कर, हाथों में फलक - ढाल बांधे हुए यावत् क्षिप्रतूर्य के बजाने से और महान उत्कृष्ट - आनन्दमय महाध्वनि, सिंहनाद आदि शब्दों द्वारा समुद्र के शब्द को प्राप्त हुए के समान आकाश को करता हुआ पुरिमताल नगर के मध्य में से निकल कर शालाटवी चोरपल्ली की ओर जाने का निश्चय करता है । टीका- - करुणा – जनक दुःखी हृदयों की अन्तर्ध्वनि को व्यक्त शब्दों में सुन कर महाबल (१) "दंड " शब्द का अर्थ अभयदेवसूरि " दण्डनायक" करते हैं और पण्डित मुनि श्री घासीलाल जी म० " दण्ड नामक सेनापति " ऐसा करते हैं । कोषकार दण्डनायक शब्द के - ग्रामरक्षक, कोतवाल तथा दण्डदाता, अपराध-विवार - कर्ता, सेनापति और प्रतिनियत सैन्य का नायकऐसे अनेकों अर्थ करते हैं । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy