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तीसरा अध्याय ]
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
[२३३
यथार्थ है कि संसारी आत्मा अपने अध्यवसाय के अनुसार शुभ और अशुभ दोनों ही प्रकार के कर्मों का बन्ध करता है । सत्तागत कर्मों में शुभ और अशुभ दोनों ही प्रकार के कर्म होते हैं । उन में से जो कर्म जिस समय उदय में आता है, उस समय वह फल देता है । अगर शुभ कर्म का विपाकोदय हो तो इस जीव को सुख तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है और अशुभ कर्म के विपाकोदय में दुःख तथा दरिद्रता की उपलब्धि होती है । हम संसार में यह प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं कि एक ही जन्म में अनेक जीव समय २ पर सुख तथा ऐश्वर्य और दुःख तथा दरिद्रता दोनों को ही प्राप्त कर रहे हैं । एक व्यक्ति जो आज हर प्रकार से दुःखी है कल वही सर्व प्रकार से सुखी बना हुआ दिखाई देता है और जो श्राज परम- सुखी नज़र आता है कल वही दुःख से घिरा हुआ दृष्टिगोचर होता है । यदि यह सब कुछ कर्माधीन ही है तो यह मानना पड़ेगा कि जीव के स्वोपार्जित कर्मों में से शुभाशुभ दोनों ही प्रकार के कर्म अपने २ विपाकोदय में फल देते हैं और स्थिति पूरी होने पर फल दे कर निवृत्त हो जाते हैं ।
भग्नसेनको शिशु - काल में जो सुख मिल रहा है, वह उसके प्राक्तन किसी शुभ कर्म का फल है, और युवावस्था में उस को जो सांसारिक सुखों के उपभोग की विपुल सामग्री मिली है, वह भी उसके सत्तागत कमों के उदय में आये हुए किसी पुण्य' का ही परिणाम है । इसके अनन्तर पुण्यकर्म के समाप्त हो जाने पर जब उसके अशुभ कर्म का विपाकोदय होगा, तो उसे दुःख भी अवश्य भोगना पड़ेगा । कर्म शुभ हो या अशुभ एक बार उस का बन्ध हो जाने पर अगर उस की निर्जरा नहीं हुई तो वह फल अवश्य देगा और देगा तब जब कि वह उदय
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अतः अभग्नसेन ने
(१) किसी भी व्यक्ति की मात्र पापमयी प्रवृत्ति के दिग्दर्शन कराने का यह अर्थ नहीं होता कि उस के जीवन में पुण्यमयी प्रवृत्ति का सर्वथा अभाव ही रहता है निर्णय के भव में मात्र पापकर्म की ही उपार्जना की थी, पुण्य का उसके जीवन में कोई भी अवसर नहीं आने पाया, अथवा निर्णय से पूर्व के भवों में उसके जीवन में सत्तारूपेण पुण्यकर्म नहीं था, यह नहीं कहा जा सकता। यदि ऐसा ही होता तो अभग्नसेन के भव में उसे देवदुर्लभ मानव भव और निर्दोष पांचों इन्द्रियों का प्राप्त होना, पांच घाय माताओं के द्वारा लालन पालन, आठ कन्याओं का पाणिग्रहण, एवं अन्य मनुष्य – सम्बन्धी ऐश्वर्य का उपभोग इत्यादि पुण्यलब्ध सामग्री की प्राप्ति न हो पाती। अतः अभमसेन के कर्मों में सत्तारूपेण पुण्य प्रकृति भी थी, यह मानना ही होगा ।
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हां, यह ठीक है कि जब पुण्य उदय में और पाप सत्तारूप में होता है तब पुण्य के प्रभाव से व्यक्ति का जीवन बड़ा वैभवशाली एवं श्रानन्दपूर्ण बन जाता है, इसके विपरीत जब पुण्य सत्तारूप में और पाप उदय में रहता है, तो वह पाप भीषण दुःखों का कारण बनता है ।
एक बात और भी है कि अभग्नसेन ने निर्णय के उन का दण्ड उसे पर्याप्त मात्रा में तीसरी नरक में के बड़े लम्बे काल तक नारकीय भीषण यातनाओं का उपभोग करना पड़ा था, तब दुष्कर्मों का दण्ड भोग लेने के कारण होने वाली उसकी कर्म - निर्जरा भी उपेक्षित नहीं की जा सकती, फिर भले ही वह निर्जरा देशतः (आशिक) भी क्यों न हो ।
भव में जिन दुष्कर्मों की उपार्जना की थी मिल चुका था, वहां उसे सात सागरोपम
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