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विजय सेनापति के इस सब ने "अभग्नसेन" इस नाम की देते हुए अपने २ घरों को चले गये ।
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तीसरा अध्याय ]
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
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है, जिनका हृदय प्रफुल्लित सरोज की का अवलोकन करके प्रसन्नता के खुशी मनाई जा रही है ।
ही समझना चाहिये । श्राज स्कन्दश्री भी उन्हीं महिलाओं में से भान्ति प्रसन्न है । स्कन्दश्री अपने नवजात शिशु की मुखाकृति मारे फूली नहीं समाती । पुत्र के जन्म से सारे घर में तथा परिवार में आज विजय के हर्ष की भी कोई सीमा नहीं बधाई देने वालों को वह जी खोल कर द्रव्य तथा वस्त्र भूषणादि दे रहा है और बालक के जन्म दिन से लेकर दस दिन पर्यन्त उत्सव मनाने का आयोजन भी बड़े उत्साह के साथ किया जा रहा है । जन्मोत्सव मनाने के लिये एक विशाल मण्डप तैयार किया गया. सभी मित्रों तथा सगे सम्बन्धियों को आमन्त्रित किया गया । सभी लोग उत्साहपूर्वक नवजात शिशु के जन्मोत्सव में संमिलित हुए और सब ने विजय को बधाई देते हुए बालक के दीर्घायु होने की शुभेच्छा प्रकट की । तदनन्तर विजय चोरसेनापति ने ग्यारहवें दिन सब को सहभोज दिया अर्थात् विविध भान्ति के ' अशन पान खादिम और स्वादिम पदाथा से अपने मित्रों, ज्ञातिजनों तथा अन्य पारिवारिक व्यक्तियों को प्रेम पूर्वक जिमाया। इधर स्कन्दश्री की सहचरियों ने भी बाहिर से आई हुई महिलाओं के स्वागत में किसी प्रकार की कमी नहीं रक्खी। भोजनादि से निवृत्त होकर सभी उत्सव मण्डप में पधारे और यथास्थान बैठ गये। सत्र के बैठ जाने पर विजय सेनापति ने श्रागन्तुओं का स्वागत करते हुए कहा -
आदरणीय बन्धु ! आप सज्जनों का यहां पर पधारना मेरे लिये बड़े गौरव और सौभाग्य बात है. तदर्थ मैं पका अधिक से अधिक आभारी हूँ । विशेष बात यह है कि जिस समय यह बालक गर्भ में आया था उस समय इस की माता स्कन्दश्री को एक दोहद उत्पन्न दुआ था । ( इसके बाद उसने दोहद – म्बन्धी सारा वृत्तान्त कह सुनाया ) । उसकी पूर्ति भी यथाशक्ति कर दी गई थी, दूसरे शब्दों में- उस दोहद को भग्न नहीं होने दिया गया अर्थात् स्कन्दश्री का वह दोहद अंभग्न रहा । इसी कारण - दोहद के अभग्न होने से आज मैं इस बालक का "अभग्न सेन" यह नामकरण करता
हूँ, आशा है आप सब इस में सम्मत होंगे और किसी को कोई विप्रतिपत्ति नहीं होगी ।
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व्याख्या करते
प्रस्ताव का सभी उपस्थित सभ्यों ने खुले दिल से समर्थन किया और उद्घोषणा की। तथा सब लोग बालक अभग्नसेन को शुभाशीर्वाद
तदनन्तर कुमार प्रभग्नसेन की सारसंभाल के लिये पांच धाय मातायें नियुक्त कर दी गईं । वह उनके संरक्षण में शुक्लपक्ष की द्वितीया के चन्द्रमा की भान्ति बढ़ने लगा ।
की
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प्रस्तुत सूत्रगत – “इड्ढिस कारसमुदपणं" तथा "दसरत्तं ठितिवडियं" इन दोनों आचार्य अभयदेव सूरि इस प्रकार लिखते हैं
हुए
“ऋद्धया - वस्त्रसुवर्णादिसम्पदा, सत्कार:- पूजा विशेषस्तस्य समुदयः समुदायो यः स तथा । दशरात्रं यावत् स्थितिपतितं - कुलक्रमागतं पुत्रजन्मानुष्ठानं तत्" । अर्थात् ऋद्धि शब्द से वस्त्र तथा सुवर्णादि सम्पत्ति अभिप्रेत है और पूजा विशेष को सत्कार कहते हैं, एवं समूह का नाम समुदाय है । कुलक्रमागत- कुल परम्परा से चले आने वाले पुत्रजन्मसंबन्धी अनुष्ठान विशेष को स्थितिपतित कहते हैं, जोकि दश दिन में संपन्न होता है ।
(१) इन पदों का अर्थ पृष्ठ ४८ के टिप्पण लिखा जा चुका है ।
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