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२२४]
श्री विपाक सूत्र
[तीसरा अध्याय
बहूहि चोरमहिलाहिं सद्धिं संपरिवुड़ा एहाया जाव विभूसिता विपुलं असणं ४ सुरं च ५ आसादेमाणी ४ विहरति । जिमियभुत्तुत्तरोगया पुगिसणेवत्थिया सन्नद्धबद्ध० जाव
आहिंडेमाणी दोहलं विणेति, तते णं सा खंदसिरी भारिया संपुगणदोहला संमाणियदोहला षिणीयदोहला वोछिएणदोहला संपन्नदोहला तं गब्भं सुहसुहेणं परिवहति । तते णं सा खंदसिरी चोरसेणावतिणी णवण्ह मासाणं बहुपडिपुण्णाणं दारगं पयाना ।।
पदार्थ-तते ण-तदनन्तर । से-वह । विजए -विजय नामक । चोरसेणावती-चोर. सेनापति-चोरों का नायक । खंदसिरिं भारियं-स्कन्दश्री स्त्री को जो कि । ओहत.कर्तव्य और अकर्तव्य के विवेक से विकल । जाव~-यावत् अार्तध्यान से युक्त है। पासति २देखता है, देखकर । एवं -इस प्रकार । वयासो-कहने लगा । देवाणु०! -हे सुभगे ! । तुमत् । किराण-क्यों । ओहत - कर्तव्य और अकतव्य के भान से शून्य हो कर । जाव'-यावत् । झियासि -अार्तध्यान कर रही हो ? । तते ण- तदनन्तर । सा-वह । खंदसिरि - स्कन्दश्री । विजयं-विजय के प्रति । एवं-इस प्रकार । क्यासी-कहने लगी । एवं खलु इस प्रकार निश्चय ही । देवाणु०!-हे देवानुप्रय ! अर्थात् हे स्वामिन् ! । मम-मुझे गर्भ धारण किए हुए । तिराहं मासाणं-तीन मास हो गए हैं, अब मुझे एक दोहद उत्पन्न हुआ है, उस की पूर्ति न होने से में कर्तव्याकर्तव्य के विवेक से रहित हुई । जाव - यावत् । झियामि-अार्तध्यान कर रही हूँ । तते ण-तदनन्तर । से विजए - वह विजय । चोरसेणावती-चोरसेनापति । खंदसिरीए भारियाए -स्कन्दश्री भार्या के । अंतिते =पास से । एयमढें-इस बात को । सोच्चा-सुन कर तथा । णिसम्म-हृदय में धारण कर । खंदसिरिं भारियं-स्कन्दश्री नामक भार्या को । एवं - वयासी-इस प्रकार कहने लगा। देवाणुप्पिए ! हे देवानुप्रिये ! अर्थात् हे सुभगे ! । अहासुहं त्ति-जैसा तुम को सुख हो वैसा करो, इस प्रकार से । एयमटुं- उस बात को । पडिसुणेति- स्वीकार करता है, तात्पर्य यह है कि विजय ने स्कन्दश्री के दोहद को पूर्ण कर देने की स्वीकृति दी । तते णं
(१) श्रोहत० जाव पासति- यहां पठित जाव-यावत् – पद से - ओहतमणसंकप्पं- इसका ग्रहण समझना । इस पद के दो अर्थ पाये जाते हैं, जोकि निम्नोक्त हैं ----
१-अपहतमन:संकल्पा -अपहतो मनसः संकल्यो यस्याः सा -अर्थात् संकल्प विकल्प रहित मन वाली । तात्पर्य यह है कि जिसके मन के संकल्प नष्ट हो चुके हैं, वह स्त्री ।।
(२) अपहतमनःसंकल्पा-कर्तव्याकर्तव्यविवेकविकला-अर्थात् कर्तव्य । करने के योग्य ) और अकर्तव्य (न करने योग्य) के विवेक से रहित स्त्री । प्रस्तुत में-ओहतमणसंकप्पं - यह पद द्वितीयान्त विवक्षित है, अतः यहां द्वितीयान्त अर्थ ही ग्रहण करना चाहिये।
(२) "मासाणं जाव झियामि -.' यहां पठित जाव-यावत् -पद से "बहुपडिपुराणाण इमे एयारूवे दोहले पाउब्भते, धराणा प्रो ताओ अम्मया प्रो-से लेकर -तं जइ णं अहमवि जाव विणिज्जामि त्ति कटु तंसि दोहलंसि अविणिज्जमाण सि सुक्खा भुक्खा- से लेकर - श्रोहयमणसंकप्पा- यहां तक के पाठ का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । इन पदों में मे बहपडिपराणाण-से लेकर--अविणिज्जमाण सि-यहां तक के पदों का अर्थ पृष्ठ २१८ तथा २१९ पर और सुक्खा -- इत्यादि पदों का अर्थ पृष्ठ १४२ पर किया जा चुका है ।
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