SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 309
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तीसरा अध्याय ] हिन्दी भाषा टीका सहित । [२२१ के प्रभावानुसार मन में जो संकल्पविशेष उत्पन्न होते हैं, शास्त्रीय परिभाषा में उन्हें दोहद कहते हैं । स्कन्दश्री को निम्नलिखित दोहद उत्पन्न हुआ वे माताएं धन्य हैं जो अपना सहेलियों नौकरानियों निजजनों, स्वजनों, सगे सम्बन्धियों तथा अपनी जाति की स्त्रियों एवं अन्य चोरमहिलाओं के साथ एकत्रित हो कर स्नानादि क्रियाओं के बाद निष्टजन्य स्वप्नों को निष्फल करने के लिये प्रायश्चित्त के रूप में तिलक और मांगलिक कार्य करके वस्त्र भूषणादि से विभूषित होकर विविध प्रकार के खाद्य पदार्थों और नाना प्रकार की मदिराओं का यथारुचि सेवन करती हैं। तथा जो इच्छित भोज्य सामग्री एवं मदिरापान के अनन्तर उचित स्थान में आकर पुरुष के वेष को धारण करतीं हैं, और अस्त्र शस्त्रादि से सुसज्जित हो सैनिकों की तरह जिन्हों ने कवचादि पहने हुए हैं, बायें हाथ में दालें और दाहिने में नंगी तलवारें हैं। जिनके कन्धे पर तरकश प्रत्यञ्च - डोरी से सुसज्जित धनुष हैं और चलाने के लिये बाणों को ऊपर कर रक्खा है. और जो वाद्यध्वनि से समुद्र के शब्द को प्राप्त हुए के समान श्राकाशमंडल को गुजाती हुई तथा शालाटवी नामक चोरपल्ली का सर्व प्रकार से निरीक्षण करती हुई अपनी इच्छाओं की पूर्ति करती हैं। वे माताएं धन्य हैं, उन्हीं का जीवन सफल है 1 सारांश यह है कि स्कन्दश्री के मन में यह संकल्प उत्पन्न हुआ कि जो गर्भवती महिलायें अपनी जीवन – सहचरियों के साथ यथारुचि सानन्द खान पान करती हैं, तथा पुरुष का वेष बनाकर कवि शस्त्रों से सैनिक तथा शिकारी की भांति तैयार होकर नाना प्रकार के शब्द करती हुई बाहिर जंगलों में सानन्द बिना किसी प्रतिबन्ध के भ्रमण करती हैं, वे भाग्यशालिनी हैं और उन्हों ने ही अपने मातृजीवन को सफल किया है, क्या ही अच्छा हो यदि मुझे भी ऐसा करने का अवसर मिले और मैं भी अपने को भाग्यशालिना समभू । - Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir विचार : - परम्परा के विश्रान्त स्त्रोत में प्रवाहित हुआ मानव प्राणी बहुत कुछ सोचता है और अनेक तरह की उधेड़बुन में लगा रहता है । कभी वह सोचता है कि मैं इस काम को पूरा करलू तो अच्छा है, कभी सोचता है कि मुझे अमुक पदार्थ मिल जाये तो ठीक है । यदि आरम्भ किया काम पूरा हो जाता है तो मन में प्रसन्नता होती है, उसके अपूर्ण रहने पर मन उदासीन हो जाता है । परन्तु सफलता और विफलता, हर्ष और विषाद तथा हानि और लाभ ये दोनों साथ साथ ही रहते हैं । वीतरागता की प्राप्ति के बिना मानव में हर्ष, विषाद, हानि और लाभ जन्य क्षोभ बराबर बना रहता है । स्कन्दश्री भी एक मानव प्राणी है. उस में सांसारिक प्रलोभनों की मात्रा साधारण मनुष्य की अपेक्षा अधिक है । इसलिये उस में हर्ष अथवा विषाद भी पर्याप्त है । उसके दोहद - इच्छित संकल्प की पूर्ति न होने से उस में विषादकी मात्रा बढ़ी और वह दिन प्रतिदिन सूखने लगी तथा दीर्घकालीन रोगों से व्याप्त होने की भान्ति उस की शरिरिक दशा चिन्ताजनक हो गई । उस का सारा समय ध्यान में व्यतीत होने लगा । w " जिमियभुत्त तरागया श्री " - इस की व्याख्या करते हुए वृत्तिकार श्री अभयदेव सूरि इस प्रकार लिखते हैं " जेमिताः - कृतभोजनाः, भुक्तोत्तरं - भोजनानन्तरं श्रागता उचितस्थाने यास्ता तथा-" अर्थात् जिसने भोजन कर लिया है, उसे जेमिन कहते हैं। भोजन के पश्चात् को कहते हैं - भुक्तोत्तर | भोजन करने के अनंतर उचितस्थान में उपस्थित हुई महिलायें - "जेमितभुक्कोत्तरागता" कहलाती हैं । For Private And Personal
SR No.020898
Book TitleVipak Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni, Hemchandra Maharaj
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year1954
Total Pages829
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy