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श्री वपाक सूत्र
[ तीसरा अध्याय
निर्णय ने जहां अंडों को खोज कर लाने के लिये आदमी रक्खे हुए थे, वहां साथ में उस ने ऐसे पुरुष भी रख छोड़े थे कि जो राजमार्ग में स्थित दुकानों पर बैठ. अंडों का क्रयविक्रय किया करते। अंडों को उबालकर, भून कर और पकाकर बेचते । तात्पर्य यह है कि जिस पुरुष को निर्णय ने जो
रक्खा था. वह उसे पूरी सावधानी से करता था। इस वर्णन से यह पता चलता है कि निर्णय ने अंडों का व्यवसाय काफी फैला रखा था।
पाठक कभी यह समझने की भूल न करें कि निर्णय का यह व्यवसाय केवल व्यापार तक ही सीमित था किन्तु वह स्वयं भी मांसाहारी था। अपने प्रतिदिन के भोजन को भी वह अ कराया करता और अनेक विधियों से अंडों का आहार करता । मांस के साथ मदिरा का निकट सम्बन्ध होने से वह इस का भी पर्याप्त उपभोग करता । इस प्रकार के सावध व्यापार तथा आहारादि से निर्णय ने अपने जीवन में पाप - कर्मों का काफ़ी संचय किया, जिस के फलस्वरूप उसे मरकर तासरी नरक में नारकी रूप से उत्पन्न होना पड़ा।
यह सच है कि जघन्य स्वार्थ. मनुष्य को बुरे से बुरे काम को ओर प्रवृत्त करा देता है । स्वार्थ और मनुष्यता का अहिनकुल (सांप और नेवले) को भान्ति सहज (स्वाभाविक) वैर है। मनुष्यता की स्थिति में स्वार्थ का अभाव होता है और स्वार्थ के आधिपत्य में मनुष्यता नहीं रहने पाती। स्वार्थी जीव दूसरों के हित का नाश करने में संकोच नहीं करता, तथा निर्दोष प्राणियों के प्राणों का 'अपहरण करना उसके लिये एक साधारण सी बात हो जाती है । निर्णय नामक अंडवाणिज भी इसी स्वार्थ - पूर्ण वृत्ति के कारण अगणित प्राणियों की हिंसा कर रहा था । उसकी इस पापमय प्रवृत्ति ने उस के आत्मा को अधिक से अधिक भारी कर दिया । उसने ऐसे जघन्य कामों में पूरे एक हजार वर्ष व्यतीत किये।
.. इस भयंकरातिभयंकर अपराध के कारण उसे तीसरी नरक में जाना पड़ा । तीसरी नरक की उत्कृष्ट स्थिति सात 'सागरोपम को है, अर्थात् स्वकृत कर्मों के अनुसार उस में गया हुअा जीव अधिक से अधिक सात सागरोपम काल तक रहता है । इसलिये विचारशील पुरुष को पापकर्म से पृथक रहने का ही सदा भरसक प्रयत्न करना चाहिये।
"दिरणतिभत्तवेयणा" - इस समस्त पद की व्याख्या करते हुए आचार्य अभयदेव रि लिखते हैं - "दत्तं भृतिभक्तरूपं वेतनं मूल्यं येषां ते तथा, तत्र भृतिः --द्रम्मादिवर्तना, भक्त त घतकणादि-" अर्थात् वेतन शब्द से उस द्रव्य का ग्रहण होता है जो किसी को कोई काम के बदले में दिया जाए । भृति शब्द रुपए पैसे आदि का परिचायक है तथा भक्त शब्द घृत, धान्य
आदि के लिये प्रयुक्त होता है। तात्पर्य यह है कि- निर्णय नामक अंडों के व्यापारी ने जिन नौकरों को रखा हुआ था, उन में से किन्हीं को वह वेतन के उपलक्ष्य में रुपया, पैसा आदि दिया करता था और किन्हीं को घृत, गेहूँ आदि धान्य दिया करता था।
प्रतिदिन का दूसरा नाम कल्याकल्यि है। कल्ये कल्ये च कल्याकल्यि अनुदिनमित्यर्थ :। तथा जमीन खोदने वाला शस्त्रविशेष कुहालक कहलाता है। बांसों की बनी हुई पिटारी या टोकरी का नाम पत्थिकापिटक है । अथवा पत्थिका टोकरी और पिटक थैले का नाम है । - इसके अतिरिक्त "तवएसु" आदि पदों की तथा "तलेंति" आदि पदों की व्याख्या वृत्तिकार
(१) सागरापम- शब्द का अर्थ पृष्ठ ९४ पर लिखा जा चुका है।
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