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२१०]
श्री विपाक सूत्र
अध्याय
पुश्वभवे-पूर्व भव में । के-कौन । आसि ? -था ? । जाव -यावत् । विहरति ? - समय बिता रहा है ?
मूलार्थ-तदनन्तर भगवान् गौतम के हृदय में उस पुरुष को देख कर यह संकल्प उत्पन्न हुश्रा यावत् पूर्ववत् वे नगर से बाहिर निकले तथा भगवान् के पास आ कर निवेदन करने लगे - भगवन् ! मैं आप को आज्ञानुसार नगर में गया, वहां मैंने एक पुरुष को देखा यावत् भगवन् ! वह पुरुष पूर्वभव में कौन था ? जो कि यावत् विहरण कर रहा है- कर्मों का फल पा रहा है ?
टीका-पूर्वसूत्र में सूत्रकार ने एक ऐसे पुरुष का वर्णन किया है, जिसे राजकीय पुरुषों ने बेड़ियों से जकड़ रक्खा था, तथा जिस को बड़ी कठोरता से पीटा जा रहा था। उसे जब पतितपावन भगवान् गौतम ने देखा तो देखते ही उनका रोम २ करुणाजन्य पीड़ा से व्यथित हो उठा
और उनके मानस में इस प्रकार के विचार उत्पन्न हुए कि अहो ! यह पुरुष कितनी भयानक वेदना को भोग रहा है । यह ठीक है कि मैंने नरकों को नहीं देखा है किन्तु इस पुरुष की दशा तो नारकिया जैसी ही प्रतीत हो रही है । तात्पर्य यह है कि जैसे नरक में नारकी जीवों को परमाधर्मियों के द्वारा दु:ख मिलता है, वैसे ही इस पुरुष को इन राजपुरुषों के द्वारा मिल रहा है।
अज्ञानी जीव कर्म करते समय कुछ नहीं सोचता किन्तु जिस समय उस को उसका फल भोगना पड़ता है, उस समय वह अपने किये पर पश्चाताप करता है, रोता और चिल्लाता है । पर फिर कुछ नहीं बनने पाता इत्यादि विचारों में निमग्न हुए गौतम स्वामी पुरिमताल नगर से निकले
और ईर्यासमिति- पूर्वक गमन करते हुए भगवान् महावीर स्वामी के पास पहुँचे, पहुँच कर वन्दना नमस्कार करने के बाद उन्हें उक्त सारा वृत्तान्त कह सुनाया और विनय -पूर्वक उस वध्य व्यक्ति के पूर्वभव सम्बन्धी वृत्तान्त को जानने की अभिलाषा प्रकट की।
"अज्झथिए ५... यहां पर दिये गये ५ के अंक से-चिंतिए, कपि, पत्थिए, मणोगए, संकप्पे-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है । इन पदों की व्याख्या पृष्ठ १३३ पर की जा चुकी है।
"समुप्पन्ने जाव तहेव'"- यहां पठित "-जाव-यावत् -" पद से - अहो णं इमे पुरिसे पुरा पोराणाणं दुच्चिएणाणं दुप्पडिक्कन्ताणं असुभाणं पावाणं कड़ाणं कम्माणं पावगं फलवित्तिविसेसं पञ्चणुभवमाणे विहरति । न मे दिवा नरगा वा नेरइया वा पञ्चक्खं खलु अयं पुरिसे नरयपडिरूवियं वेयणं वेएति त्ति कटु पुरिमताले गरे उच्चनीयमज्झिमकुलेसु अडमाणे अहापजत्तं समुयाणं गिण्हइ २ पुरिमतालस्स नगरस्य मज्झमज्झेणं निग्गच्छति २ जेणेव समणस्स भगवो महावीरस्स अदूरसामन्ते गमणागमणाए पडिक्कमइ २ एसणमणेसणे
आलोएइ २ भत्तपाणं पडिदंसइ २ समणं भगवं महावीरं वन्दति नमंसति २-इन पदों का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है, इन का भावार्थ निम्नोक्त है -
खेद है कि यह बालक पहले प्राचीन दुश्चीर्ण-दुष्टता से उपार्जन किये गये, दुष्प्रतिक्रान्तजो धार्मिक क्रियानुष्ठान से नष्ट नहीं किये गये हों ऐसे अशुभ, पापमय, किए हुए कर्मों के पापरूप फलवृत्तिविशेष-फल का प्रत्यक्षरूप से अनुभव करता हुआ समय बिता रहा है । नरक तथा नारकी मैंने नहीं देखे । यह पुरुष नरक के समान वेदना का अनुभव करता हुआ प्रतीत हो रहा है।
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