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तीसरा अध्याय
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
प्रजा की मनोवृत्ति से ही प्राय: राजा की मनोवृत्ति का ज्ञान हो जाया करता है । प्रायः उसी राजा की प्रजा धार्मिक विचारों की होती है जो स्वयं धर्म का आचरण करने वाला हो। पुरिमताल अगर के महीपति भी किसी से कम नहीं थे। वीर भगवान् के शुभागमन का समाचार पाते ही वे भी उठे और अपने कर्मचारियों को तैयारी करने की आज्ञा फरमाई । तथा बड़ी सजधज के साथ वीर भगवान् के दशनार्थ नगर से निकले और वीर भगवान् के चरणों में उपस्थित हुए, तथा विधिपूर्वक वन्दना 'नमस्कार करने के अनन्तर भगवान् के सन्मुख उचित स्थान पर बैठ गये। नगर की अन्य जनता भी शान्ति-पूर्वक यथास्थान बैठ गई।
इस प्रकार नागरिक और नरेश श्रादि के यथास्थान बैठ जाने के बाद भगवान् ने अपनी अमृत वाणी से अनेक सन्तप्त हृदयों को शान्त किया, उन्हें धर्म का उपदेश देकर कृतार्थ किया। तदनन्तर राजा और प्रजा दोनों ही भगवान् के चरणों में हार्दिक भाव से श्रद्धांजलि अर्पण करते हुए अपने २ स्थान की ओर प्रस्थित हुए।
जनता के चले जाने पर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के प्रधान शिष्य गौतम स्वामी जो कि तपश्चर्या की सजीव मूर्ति थे, षष्ठतप-बेले के पारणे के निमित्त पुरिमताल नगर में भिक्षार्थ जाने की आज्ञा मांगने लगे। आज्ञा मिल जाने पर वे नगर की ओर प्रस्थित हुए, और पुरिमताल नगर के राजमार्ग में पहुंचे। वहां उन्हों ने निम्नोक्त दृश्य देखा
बहुत से सुसजित हस्ती तथा शृगारित घोड़े एवं कवच पहने हुए अस्त्र शस्त्रों से सन्नद्ध अनेक सैनिक पुरुष खड़े हैं। उन के मध्य में अवकोटक-बन्धन से बन्धा हुआ एक पुरुष है, जिसके साथ अमानुषिक व्यवहार किया जा रहा है । उस के साथ ही उस को दिये गये दंड के कारण की- इसके अपने कर्म ही इस की इस दुर्दशा का कारण हैं, राजा आदि कोई अन्य नहीं है-इस रूप से उद्घोषणा भी की जा रही थी। उद्घोषणा के अनन्तर राजकीय अधिकारी पुरुष उसे प्रथम चत्वरचौंतरे पर बिठाते हैं, तत्पश्चात् उसके सामने उसके आठ चाचों (पिता के लघु भ्राताओं) को बड़ी निर्दयता के साथ मारते हैं, और नितान्त दयाजनक स्थिति रखने वाले उस पुरुष को काकिणीमांस-उस की देह से निकाले हुए छोटे छोटे मांस-खण्ड खिलाते तथा रुधिर का पान कराते हैं । वहां से उठ कर दूसरे चौंतरे पर आते हैं, वहां उसे बिठाते हैं, वहां उस के सन्मुख उसकी आठ चाचिओं को लाकर बड़ी क रता से पीटते हैं इसी प्रकार तीसरे, चौथे, पांचवें, छठे, सातवें. आठवें, नवमें, दसवें, ग्यारहवें, बारहवें, तेरहवें, चौदहवें पन्द्रहवें, सोलहवें, सतरहवें, और अठारहवें चौतरे पर भी उसके निजी सम्बन्धियों को कशा से पीटते हैं । उन सम्बन्धियों के नाम का निर्देश मूलार्थ में आ चुका है।
इस उल्लेख में दंड की भयंकरता का निर्देश किया गया है । दण्डित व्यक्ति के अतिरिक्त उसके परिवार को भी दंड देना, दंड की पराकाष्ठा है ।
-"गोयमे जाव रायमग्गं-" यहां पठितजाव-यावत्-पद से-"छक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरसीए सज्झायं करेइ-से ले कर"-रियं सोहेमाणे जेणेव पुरिमताले गरे तेणेव उवागच्छइ, पुरिमताले गरे उच्चणीयमभिमकुलाई अडमाणे जेणेव"- यहां तक के पाठ का ग्रहण करना सूत्रकार को अभिमत है। इन पदों की व्याख्या द्वितीय अध्ययन के पृष्ठ १२३ पर दी जा चुकी है । अन्तर मात्र इतना है कि वहां वाणिजग्राम नगर का नाम समुल्लिखित है और यहां पुरिमताल
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