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तीसरा अध्याय ]
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हिन्दी भाषा टीका सहित ।
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“खण्डपट्टाण–खण्ड: अपरिपूर्णः पट्टः परिधानपट्टो येषां मद्यद्य तादिव्यसनाभिभूततया परिपूर्ण परिधानाप्राप्तेः ते खण्डपट्टा: — द्य तकारादयः, अन्यायव्यवहारिणः इत्यन्ये, धूर्ता इत्यपरे – ” र्थात् खण्डका अर्थ है - परिपूर्ण अपूर्ण (अधूरा ) । पट्ट कहते हैं – पहनने के वस्त्र को । मदिरा सेवन एवं जूना आदि व्यसनों में आसक्त रहने के कारण जिन को वस्त्र भी पूरे उपलब्ध नहीं होते, उन्हें खरडपट्ट कहते हैं । या यू ं कहें कि खण्डपट्ट द्यूतकार - जुआरी या मदिरासेवी शराबी का नाम है ।
कोई कोई आचार्य खण्डपट्ट शब्द की व्याख्या "अन्याय 'व्यवहार - व्यापार करने वाले - " ऐसी करते है, और कोई २ खण्डपट्ट का अर्थ “धूर्त" भी करते है । चालवाज़ या धोखा देने वाले को धूर्त कहा जाता है । “छिन्न भिरणबाहिराहियाणं - छिन्ना हस्तादिषु भिन्नाः नासिकादिषु “ – बाहिराहि य-' -" fa नगराद् बहिष्कृताः, अथवा ब्राह्याः स्वाचार - परिभ्रशाद विशिष्टजनबहिवर्तिनः, " अहिय" ति अहिता ग्रामादिदाहकत्वाद्, अतः द्वन्द्वस्तेषाम् - " अर्थात् इस समस्त पद में तीन अथवा चार पद है । जैसे कि - (१) छिन्न (२) भिन्न (३) वहिराहित अथवा बाह्य और (४) श्रहित । छिन्न शब्द से उन व्यक्तियों का ग्रहण होता है, जिन के हाथ आदि कटे हुए हैं। भिन्न शब्द - जिन को नासिका आदि का भेदन हो चुका है - इस अर्थ का बोधक है । नगर से बहिष्कृत - बाहिर निकाले हुए को वहिराहित कहते हैं । श्राचारभ्रष्ट होने के कारण जो शिष्ट मण्डली - उत्तम जनों से बहिर्वर्ती - बहिष्कृत हैं, वे बाह्य कहलाते हैं। हितकारी अर्थात् ग्रामादि को जला कर जनता को दुःख देने वाले मनुष्य अहित शब्द से अभिव्यक्त किये गये हैं ।
" कुडंग - कुटक इव कुटङ्कः - वंशगहनमिव तेषामावरकः – गोपकः " अर्थात् बांसों के बन का नाम कुटक है । कुटक प्रायः गहन (दुर्गम) होता है, उस में जल्दी २ किसी का प्रवेश नहीं हो पाता । चोरी करने वाले और गांठें कतरने वाले लोग इसी लिए ऐसे स्थानों में अपने को छिपाते हैं, जिस से अधिकारी लोगों का वहां से उन्हें पकड़ना कठिन हो जाता है ।
सूत्रकार ने विजयसेन चोरसेनापति को कुटंक कहा है । इस का अभिप्राय यही है कि जिस तरह बांसों का बन प्रछन्न रहने वालों के लिए उपयुक्त एवं निरापद स्थान होता है. वैसे ही चोरसेनापति परस्त्रीलम्पट और ग्रन्थिभेदक इत्यादि लोगों के लिये बड़ा सुरक्षित एवं निरापद स्थान था । तात्पर्य यह है कि वहाँ उन्हें किसी प्रकार की चिन्ता नहीं रहती थी । अपने को वहां वे निर्भय पाते थे ।
" गामघातेहि" - इत्यादि पदों की व्याख्या निम्नोक्त की जाती है
(१) ग्रामघात - घात का अर्थ है नाश करना | ग्रामों-गांवों का घात, ग्रामघात कहलाता है । तात्पर्य यह है कि ग्रामीण लोगों की चल (जो वस्तु इधर उधर ले जाई जा सके, जैसे चान्दी, सोना रुपया तथा वस्त्रादि) और अचल - (जो इधर उधर न की जा सके, जैसे-मकानादि) सम्पत्ति को विजय सेन चोरसेनापति हानि पहुँचाया करता था । एवं वहां के लोगों को मानसिक, वाचनिक एवं कायिक सभी तरह की पीड़ा और व्यथा पहुंचाता था ।
(२) नगरघात -- नगरों का घात - नाश नगरघात कहलाता है, इस का विवेचन ग्रामघात की भान्ति जान लेना चाहिए ।
(३) गोग्रहण - गो शब्द गो आदि सभी पशुओं का परिचायक । गो का ग्रहण - अपहरण
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