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संशोधकी विज्ञप्ति ]
भाषाटीकासहित
(११)
अनुवाद को सर्वाङ्गपूर्ण एवं सुन्दर बनाने के लिये भरसक प्रयत्न किया है। मूल और टीका में आए प्रत्येक विषय का स्पष्ट, सरल और विस्तृत विवेचन किया गया है, यही इस अनुवाद की विशेषता है । अनुवादक मुनि श्री जी का परिश्रम सर्वथा प्रशंसनीय है ।
इस अनुवाद तथा संशोधन की सफलता का सर्वोपरि श्रेय तो जैनधर्मदिवाकर, जैनागमरत्नाकर, साहित्यरत्न, परमपूज्य गुरुदेव श्री श्री श्री १००८ आचार्यप्रवर श्री आत्माराम जी महाराज को ही है, जिनकी असीम कृपादृष्टि तथा आशीर्वाद से यह महान कार्य सम्पन्न हो पाया है, तथापि मुनि श्री जी के प्रेमभरे आग्रह से मैंने भी इसके संशोधन एवं सम्पादन में यथाशक्ति भाग लिया है। संशोधक का स्थान तो बहुत ऊंचा होता है, जिसके लिए मैं अपने को योग्य नहीं पाता हूं, परन्तु इस का अवश्य हर्ष है, कि इस कारण आगमसेवा का सौभाग्य मुझे भी प्राप्त हुआ ।
प्रस्तुत श्री विपाकसूत्र कर्मवाद से सम्बन्ध रखता है, और कर्मतरत्र का निरूपण इस में कथानकों के द्वारा किया गया है। इस सूत्र के परिशीलन से मुझे ऐसा अनुभव हुआ है कि इस में वरित कई एक कथाओं का संकलन एक कठिन कार्य है। फिर भी इस ओर अनुवादक मुनि श्री जी ने जहां अधिक से अधिक ध्यान दिया है, वहां मैंने भी इसे यथाशक्य अपनी दृष्टि से ओझल नहीं होने दिया । भाषा, भाव और सङ्कलन आदि की अपेक्षा से इसे विशुद्ध बनाने के लिये पूरा २ प्रयास किया गया, फिर भी इस विशालकाय शास्त्र में त्रुटियों का रह जाना असम्भव नहीं, अतः अपनी स्खलनाओं के लिये वाचकवृन्द से विनम्र क्षमायाचना करता हुआ मैं अपनी संक्षिप्त विज्ञप्ति को समाप्त करता हूं ।
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मुनि हेमचन्द्र.