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दुसरा अध्याय 1
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
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पूर्ण हो जाने पर । दोहले-यह दोहद । पाउन्भूते-उत्पन्न हुआ कि । धराणाप्रोणं ४-धन्य हैं वे मातार्य जाओ-जो । बहूणं गो०-अनेक चतुष्पाद पशुओं के । ऊहेहि य०-ऊधस आदि के, तया । लावणिपहि य लवणसंस्कृत मांस और । सुरं ५-सुरा आदि का । आसा४ –आस्वादन करती हुई । दोहलंदोद । विणिंति- पूर्ण करती हैं । तते णं - तदनन्तर । देवाणु० !-हे महानुभाव ! । तंसि-उस । दोहलंमि-दोहद के । अविणिज्जमाणंसि-पूर्ण न होने से । जाव-यावत् किं कर्तव्यविमूढ़ हुई मैं ! झियामि - चिन्तातुर हो रहो हूँ । तते णं-तदनन्तर । से - वह । भोमे -भीम नामक । कूड०कूटग्राह । उप्पलं भारियं-उत्पला भार्या को। एवं वयासी-इस प्रकार कहने लगा। देवाणु० !- हेसुभगे तुम-तू। मा णं-मत । श्रोहय० - हतोत्साह । जाव-यावत । झियाहि --चिन्तातुर हो । अहं णंमें। तं-उस का तहा-तथा-वैसे । करिस्सानि-यत्न करूगा। जहा णं-जैसे । तव - तुम्हारे दोहलस्स-दोहद की । संपत्ती-संप्राप्ति ---पूर्ति । भविस्सइ-हो जाय । ताहिं इठ्ठाहि-उन इष्ट वचनों से । जाव - यावत् । समासासेति-उसे आश्वासन देता है।
मलार्थ-धन्य हैं वे मातायें यावत उन्हों ने ही जन्म तथा जीवन को भली भांति सफल किया है अथवा जीवन के फल को पाया है जो अनेक अनाथ या सनाथ नागरिक पशुओं यावत् वृषभों के ऊधस्, स्तन, वृषण, पुच्छ, ककुद, स्कन्ध, कर्ण, नेत्र, नासिका, जिव्हा, ओष्ठ तथा कम्बल-सास्ना जो कि शूल्य [शूला -प्रोत ], तलित (तलेहुए ), भृष्ट-भुनेहुए, शुष्क (स्वयं सूखे हुए]
और लवण -- संस्कृत मांस के साथ सुरा, मधु, मेरक, जाति, सोधु और प्रसन्ना-इन मद्यों का सामान्य और विशेष रूप से प्रास्वादन, विस्वादन, परिभाजन तथा परिभोग करती हुई अपने दोहद को पूर्ण करती हैं। काश! मैं भी भी उसी प्रकार अपने दोहद को पूर्ण करू । इस विचार के अनन्तर उस दोहद के पूर्ण न होने से वह उत्ग्ला नामक कूट ग्राह की स्त्रिी सूख गई - [ रुधिर क्षय के कारण शोषणता को प्राप्त हो गई ] बभुक्षित हो गई, मांसहित-अस्थि शेष हो गई, अर्थात मांस के सूख जाने से शरार को अस्थियें दीखने लग गइ शरीर शिथिल पड़ गया । तेज-कान्ति रहित हो गई। दीन तथा चिन्तातुर मुग्व वाली हो गई । बदन पीला पड गया । नेत्र तथा मुग्व मुर्भा गया, यथोचित पुष्प, वस्त्र, गन्ध माल्य, अलंकार
और हार अदि का उपभोग न करती हुई करतल मर्दित पुष्प माला को तरह म्लान हइ उत्साह रहित यावत् चिन्ता--ग्रस्त हो कर विचार ही कर रही थी कि इतने में भीम नामक कूटप्राह जहां पर उत्पला कूटप्राहिणी थी वहां पर श्राया और आकर उसने यावत् चिन्ताग्रस्त उत्पला को देखा, देख कर कहने लगा कि
हे भद्रे! तुम इस प्रकार शुष्क, निर्मास यावत हतोत्साह हो कर किस चिन्ता में निमग्न हो रही हो ? अर्थात ऐसी दशा होने का क्या कारण है ? तदनन्तर उस की उत्पला नामक भार्या ने उस से कहा कि स्वामिन् ! लग भग तोन मास पूर होने पर यह दोहद उत्पन्न हुआ कि वे मातायें धन्य हैं कि जो चतुष्पाद पशुओं के ऊधम्
और स्तन आदि के लवण -संस्कृत मांस का सुरा आदि के साथ आस्वादनादि करती हुई अपने दोहद को पूर्ण करती हैं। तदनन्तर हे नाथ ! उस दोहद के पूर्ण न होने पर शुष्क
और निर्मास यावत् हतोत्साह हुई मैं सोच रही हूं अर्थात् मेरी इस दशा का कारण उक्त प्रकार से दोहद की अपति - पूर्ण न होना है। तब कूटग्राह भीम ने अपनी उत्पला भार्या से कहा कि भद्र ! तू चिन्ता मत कर मैं वही कुछ करूगा, जिस से कि तुम्हारे इस दोहद की
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