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फर्ममीमांसा]
हिन्दीभापाटीकासहित
शेष हैं, उन से जन्मान्तर की प्राप्ति नहीं होती। यावत् आयुस्थिति है तावत् मनुष्यपर्याय है, अतः वे द्रव्यतः संसारी हैं, भावतः संसारी नहीं । यहां शंका हो सकती है कि सिद्ध भगवान को क्षेत्रतः संसारी अवश्य मानना पड़ेगा, क्योंकि सिद्धशिला से ऊपर के क्रोश के छठे भाग में सिद्ध भगवान विराजमान हैं। वह स्थान भी १४ राजूलोक के अंतर्गत ही है, फिर वे असंसारसमावर्तक कैसे रहे ? जब कि उसी स्थान में सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव भी वर्तमान हैं, उन्हें संसारी कहा है ?
समाधान--...सिद्ध भगवान सदैव अचल हैं, न अपने गुणों से चलित होते हैं और नाहिं संसरण करते हैं, अर्थात् स्थानान्तर होते हैं । अतः वे सर्वथा असंसारी ही हैं। तत्रस्थ एकेन्द्रिय जीवों में घनघाती कर्म विद्यमान, हैं अतः वे सर्वथा संसारी ही हैं, जो जीव भावतः संसारी हैं। वे द्रव्यतः क्षेत्रतः तथा कालतः नियमेन संसारी ही हैं, वस्ततः वे ही क्लेश के भाजन हैं।
एक जन्म में उपार्जित किए हुए पाप कर्म जीव को रोग, शोक, छेदन, भेदन, मारण पीड़न आदि दुःखपूर्ण दुर्गति में धकेल देते हैं। यदि किसी पुण्ययोग से जीव राजघराने में या श्रेष्ठिकुल में जन्म प्राप्त करता है, तो वहां पर भी वे ही पूर्वकृत पापकर्म उसे पुनः पापोपार्जन करने के लिये प्रेरित करते हैं, जिस से वह पुनः दुःखगर्त में गिर जाता है ।
ततो वि य उवट्टित्ता, संसारं बहुं अणुपरियटंति ।
बहुकम्मलेवलित्ताणं, बोही होइ सुदुल्लहा तेसिं ॥ यह गाथा माधक को सावधान बनाने के लिए पर्याप्त है ।
कारण से कार्य की उत्पत्ति-जो हमें इहभविक दुःख और सुखमय जीवन दृष्टिगोचर होता है, वह कार्य है । उस का कारण अन्य जन्मकृत पाप और पुण्य है, और जो इहभविक में क्रियमाण अशुभ और शुभ कर्म हैं, वे भविष्यत्कालिक जीवन में होने वाले दुःख सुख के कारण हैं ।
कर्मवाद का अर्थ यही होता है कि वर्तमान का निर्माण भूत के आधार पर है, और भविष्य का निर्माण वर्तमान के आधार पर निर्भर है । हमारा कोई कर्म व्यर्थ नहीं जाता । हमें किसी प्रकार का फल बिना कर्म के नहीं मिलता। कर्म और फल का यह अविच्छेद्य सम्बन्ध ही विपाकसूत्र की नींव है।
धन्यवाद- प्रस्तुत सूत्र के हिन्दी अनुवादक श्रीयुत पण्डित जैनमुनि श्री ज्ञान चन्द्र जी हैं। आप की श्रुतभक्ति सराहनीय है । बेशक इस सूत्र के लेखन तथा प्रकाशन में अनेकों बाधाएं आगे आई किन्तु अाप ने एडी की जगह पर अंगूठा नहीं रत्वा, अग्रसर होते ही गए, आखिर में सफलतालदमी ने सहपे आप के कंठ में जयमाला डाली।
___ आप की विधाकसूत्र पर आत्मज्ञानविनोदिनी नामक हिन्दीव्याख्या स्थानकवासी संप्रदाय में अभी तक अपूर्व है, ऐसा मेरा विचार है । सुललित हिन्दीव्याख्या के न होने से बहुत से जिज्ञासुगण उक्त सूत्रविषयक ज्ञान से वंचित रह हुए थे । अब वह अपूर्णता अनथक प्रयास से आप ने बहुत कुछ पूर्ण करदी है । एतदर्थ धन्यवाद।
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