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श्री विपाक सूत्र -
[ दूसरा अध्याय
बेले २ पारणा करने वाले हैं, एवं भगवतो सूत्र वरित जीवनचर्या चलाने वाले हैं भिक्षा के लिये वाजिग्राम नगर में गए, वहां ऊंच नीच अर्थात साधारण और असाधारण सभी घरों में भिक्षा के निमित्त भ्रमण करते हुए राजमार्ग पर पधारे। टीका - उस काल तथा समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी वाणिजग्राम के बाहिर ईशान कोण में स्थित दूतीपलाश नामक उद्यान में पधारे। भगवान् के आगमन की सूचना मिलते ही नागरिक लोग भगवान् के दर्शनार्थ नगर से निकल पड़े । इधर महाराज मित्र भी कूणिक नरेश की भांति बड़ी सजधज से प्रभुदर्शनार्थ नगर से प्रस्थान किया, तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार भगवान् महावीर के चम्पा नगरी में पधारने पर महाराज कूणिक बड़े समारोह के साथ उनके दर्शन करने गये थे उसी प्रकार मित्र नरेश भी गये । तदनन्तर चारों प्रकार की परिषद् के उपस्थित हो जाने पर भगवान् ने उसे धर्म का उपदेश दिया । धर्मोपदेश सुन कर राजा तथा नागरिक लोग वापिस अपने २ स्थान को चले गये, अर्थात् भगवान् के मुखारविन्द से श्रवण किये हुए धर्मोपदेश का स्मरण करते हुए सानन्द अपने २ घरों को वापिस गये ।
प्रस्तुत सूत्र में " धम्मो कहियो " इस संकेत से औपपातिक सूत्र में वर्णित धर्मकथा की सूचना देनी सूत्रकार को अभीष्ट है । यद्यपि भगवान् का धर्मोपदेश तो अन्यान्य आगमों में भी वर्णित हुआ है, परन्तु इस में विशेष रूप से वर्णित होने के कारण सूत्रों में उल्लिखित उक्त पदों से औपपातिक सूत्रगत वर्णन की ओर ही संकेत किया गया है । इसी शैली को प्रायः सर्वत्र अपनाया गया है ।
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“ - इंदभूती जाव लेसे – ” पाठान्तर गत “ – जाव - यावत् - " पद से " – इन्दभूती अणगा रे गोयमसगांत " से ले कर “ संखित्तविउलतेय ले से" - पर्यन्त समग्र पाठ का ग्रहण समझना । श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के ज्येष्ठ अन्तेवासी - प्रधान शिष्य गौतम गोत्रीय इन्द्रभू नामक अनगार षष्ठभक्त [ बेले २ पारना करना ] की तपश्चर्या रूप तप के अनुष्ठान से आत्मशुद्धि में प्रवृत्त हुए भगवान की पर्युपासना में लगे हुए थे । समस्त वर्णन व्याख्या - प्रज्ञप्ति में लिखा गया है । व्याख्या - प्रज्ञप्ति - भगवती सूत्र का वह पाठ इस प्रकार है
छणं णिक्खिणं तवोकम्मेण श्राणं भावेमाणे विहरइ, तप णं से भगवं गोयमे छट्ठ - क्खमणपारणगंसि - " इत्यादि ।
' - पढमार जाव" यहां के " - जाव यावत् -" पद से “- पढमाए पोरसीए सज्झायं करेति, बीयाप पोरसीए भाणं भियाती, तइयाप पोरसीए ऋतुरियमचवलमसंभंते मुहपोत्तियं पडिलेहेति, भायणवत्थाणि पडिलेहेति, भायणाणि पमज्जति, भायणाणि उग्गाहेति, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति २ समणं ३ वंदति २ एवं वयासी- इच्छामि णं भंते !
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(१) औपपातिक सूत्र के ३४वे सूत्र में - इसिपरिसाए, मुणिपरिसाए, जइपरिसाए, देवपरिसाए - " ऐसा उल्लेख पाया जाता है, उसी के आधार पर चार प्रकार की परिषद् का निर्देश किया है। वैसे तो परिषद् के (१) ज्ञा (२) अजा (३) दुर्विग्धा ये तीन भेद होते हैं । गुण दोष के विवेचन में हंसनी के समान और गंभीर विचारणा के द्वारा पदार्थ के यथार्थ स्वरूप को अवगत करने वाली को "ज्ञा' परिषद् कहते हैं । अल्प ज्ञान वाली परन्तु सहज में ही उददेश को ग्रहण करने में समर्थ परिषद् का नाम "अ" है । इन दोनों से भिन्न को दुर्विदग्धा कहते हैं ।
(२) इस समग्र पाठ के लिये देखो भगवती सूत्र, श० १, उ० १, सू० ७ ।
(३) अन्ते समीपे वसतीत्येवं शीलोऽन्तेवासी - शिष्यः, अन्तेवासी सम्यग आशा विधायी, इतिभावः ।
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