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अध्याय!
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
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पापात्मा इत्यादि प्रकार के जो प्राणी संसार में पाये जाते हैं, इन में से प्रत्येक के साथ किस प्रकार का यथोचित आचार-व्यवहार किया जाए ? ये सब बातें इस कला द्वारा जानी जाती हैं ।
(४७) लोकरञ्जन-कला- इस कला के द्वारा पुरुषों को भांति २ से लोकरञ्जन करने की व्यवहारिक शिक्षा दी जाती है। उदाहरण के लिए - कोई आदमी लोकरञ्जनार्थ इस प्रकार कई तरह से हंसता या रोता है कि दर्शकों को तो वह हंसता या रोता हुआ नज़र आता है, पर सचमुच में वह न तो श्राप हंसता ही है और न रोता ही है।
(४८) फलाकर्षण-कला-फलों का आकर्षण ऊपर. दाहिने या बाए न होते हुए पृथिवी की ओर ही क्यों होता हैं ? प्रत्येक पदार्थ पृथ्वी से ऊपर की ओर चाहे फेंका जाए, या कोई अपनी मर्जी से कितना ही ऊपर क्यों न उड़ जाए, तब भी अन्त में उसे पृथ्वी पर ही गिरना पड़ता है या उसी की अोर आना पड़ता है, यह क्यों होता है ? इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला के द्वारा होता है।
(४९) अफल-अफलन-कला-वे चीजें जो वास्तव में फलवान होने की योग्यता रखते हुए भी फलती नहीं हैं, मुख्यतः दो भागों में विभाजित की जाती हैं-एक तो स्थावर, जैसे वृक्ष, लतायें आदि और दूसरी जंगम वस्तुयें, जो चलती फिरती हैं. जैसे मनुष्य या पशु आदि । कोई वृक्ष या लता फल ती नहीं है तो क्या कारण है ? कौन सा खाद उसे पहुँचाया जाए, तो वह फिर से फलवान् हो जाए या उस में कोई कीड़ा आदि न लग पाए ? इसी प्रकार पुरुषों के सन्तान नहीं होती है, तो इस का मूलकारण क्या है ? क्या पुरुष की जननेन्द्रिय किसी दोष से दूषित है ? या पुरुष का वीर्य सन्तानो पादन करने में अशक्त है ? अथवा स्त्रो का ही रज किसी विशेष दोष से सन्तानोत्पादन करने में असमर्थ है ? इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला के द्वारा किया जाता है।
(५०) धार-बन्धन-कला-छुरे, भाले, तलवार आदि शस्त्रों की पैनी से पैनी धार को मन्त्र तन्त्र या प्रात्मबल आदि किसी अन्य साधन द्वारा निष्फल बना कर उस पर दौड़ते २ चले जाना या इन शस्त्रों के द्वारा किसी पर प्रहार तो करना पर उसे तनिक भी चोट न पहुंचने देना अथवा बहते हुए पानी की धार को वहीं की वहीं रोक देना अथवा धारा को दो भागों में विभक्त करके मध्य में से मार्ग निकाल लेना, इत्यादि बातों की शिक्षा इस कला द्वारा दी जाती है।
काव जिन बातों को लिख कर बड़े २ विशाल ग्रन्थ तैयार कर देते हैं और पढ़े लिखे लोगों का मनोरञ्जन करते हैं एवं जीवन का पाठ पढ़ाते हैं, परन्तु उन सभी लम्बी चौड़ी बातों को एक चित्रकार चित्र के द्वारा संसार के सन्मुख उपस्थित कर देता है, जिस को देख कर अनपढ़ लोग मनोरञ्जन कर लेते हैं एवं जिस से वे अपने को शिक्षित भी कर पाते हैं इस कला में चित्र-निर्माण के सभी विकल्पों को सिखाया जाता है।
(५२) ग्रामवसावन-कला-ग्राम कैसे और कहां बसाए जाते हैं ? पहाड़ों के ऊपर मरुभूमी में और दलदलों के पास ग्राम क्यों नहीं बसाये जाते १ छोटी छोटी पहाड़ियों और धारों को तलाइयां और मैदानों की भूमियां ही वस्तियों के लिये क्यों चुनी जाती है ? कौन सी बस्ती बड़ी और कौन छोटी बन जाती है ? इत्यादि बातों का बोध इस कला के द्वारा कराया जाता है।
(५३) कटक-उतारण-कना-छावनियां कहां डाली जानी चाहिये १ उन की रचना कैसे करनी चा हये १ उन के रसद का प्रबन्ध कहां, कैसे और कितना करके रखना चहिये १ शत्र से कैसे सुरक्षित रहा जा सकता है ? इत्यादि बातों का ज्ञान इस कला द्वारा कराया जाता है।
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