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श्रीविपाकसूत्र
[कर्ममीसांसा
कार भी तीन प्रकार के शरीरप्रतिपादन करते हैं, जैसेकि-स्थूलशरीर कारणशरीर, तथा सूक्ष्मशरीर । जब जीव स्थूल शरीर को छोड़ कर अन्य स्थूल शरीर को धारण करने के लिये जाता है तो उस समय भी वह कारण तथा सूक्ष्म शरीरी होता है । शरीर भौतिक ही होता है काल्पनिक नहीं । भौतिक पदार्थ रूपवान होते हैं, जैसे पृथ्वी आदि परमाणु भी सरूपी होते हैं। उन परमाणुओं का बना हुआ सूक्ष्म शरीर होता है । जहां सशरीरता है वहां सरूपता है । जहां सरूपता नहीं वहां सशरीरता भी नहीं जैसे मुक्तात्मा। शरीर से कर्म, कर्म से शरीर यह परम्परा अनादि से चली आरही है । आयुष्कर्म ने आत्मा को शरीर में जाड़ा हुआ है। आयु कर्म न सुख देता है और न दुःख किन्तु सुख दुख, वेदने के लिये जीव को शरीर में ठहराए रखना ही उस का काम है । पहले की बांधी हुई आयु के क्षीण होने से पूर्व ही अगले भव की आयु बांध लेता है। शृखलाबद्ध की तरह सम्बन्ध हो जाने पर वही आयु नवीन शरीर में आत्मा को अवरुद्ध करती है। आयुबन्ध मोहनीय कर्म के निमित्त से बांधा जाता है । आयुबंध के साथ जितने कर्मों का बंध होता है वह बन्ध प्रायः निकाचित बन्ध होता है । अतः कर्मबद्ध जीव कथंचित् सरूपी है। एकान्त अरूपी नहीं ।जो एकान्त अरूपी है, अमूर्त है, वह कदापि पौद्धलिक वस्तु के बन्धन में नहीं पड़ सकता है । यदि अरूपी अशरोरी भी कर्म के बंधन में पड़ जाए तो मुक्तता व्यर्थ सिद्ध हो जाएगी, अतः संसारी जीव पहले कभी भी अशरीरी नहीं थे । सदा काल से सशरीरी हैं। जो सशरीरी हैं वे सब बद्ध हैं।
उदय अधिकार—जो कर्म परिपक्व हो कर रसोन्मुख हो जाए उसे उदय कहते हैं । उदय दो प्रकार का होता है, जैसे कि-प्रदेशोदय और विपाकोदय । प्रदेशोदय तो समस्त संसारी जीवों के प्रतिक्षण पाठों कर्मों का रहता ही है ऐसा कोई संसारी जीव नहीं जिस के प्रदेशोदय न हो । प्रदेशोदय से सुख दुःख का अनुभव नहीं होता जैसे गगनमंडल में सूक्ष्म रजःकण या जलकण घूम रहे हैं । हमारे पर भी उन का श्राघात हो रहा है लेकिन हमें कोई महसूस नहीं होता एवं प्रदेशोदय भी समझ लेना। किन्तु विपाकोदय से ही सुख दुःख का भान होता है । विपाकोदय ही विपाकसूत्र का विषय है। कर्मफल दो तरीके से वेदे जाते हैं । स्वयं उदीयमान होने से दूसरा उदीरणा के द्वारा उदयाभिमुख करने से। जैसे फल अपनी मौसम में स्वयं तो पकते ही हैं किन्तु अन्य किसी विशेष प्रयत्न के द्वारा भी पकाए जा सकते हैं। पाठक इतना अवश्य स्मरण रक्खें कि प्रयत्न के द्वारा उन्हीं फलों को पकाया जा सकता है जो पकने के योग्य हो रहे हैं। जो फल अभी बिल्कुल कच्चे ही हों वे नहीं पकाए जा सकते हैं। ठीक कर्मफल के विषय में भी यह ही दृष्टान्त माननीय है । जो कर्म उदय के सर्वथा अयोग्य है उसे उपशान्त कहते हैं। अतः उसकी उदीरणा नहीं हो सकती।
__ अथवा *शास्त्रीय परिभाषानुसार-जो अन्य किसी बाह्य निमित्त की अनपेक्षा से स्वयं उदय होकर फल देवे उसे औपक्रमिक वेदना कहते हैं । जो कम स्वतः या परतः जीव द्वारा अथवा इष्ट अनिष्ट पुद्गल के द्वारा उदीरणा कर के उदीयमान हो उसे अध्यवगमिक वेदना कहते हैं। वेदना कातात्पर्य यहां फल भोगने से है वह चाहे दुःखरूप में हो या सुखरूप में । आठ कर्मों की प्रकृतियां पुद्गलविपाका *कतिविहा णं भंते ! वेयणा पएणता ?, गोयना ! दुविहा वेयणा पण्णत्ता अझोवगमियाए उपकमियाए।
(प्रज्ञापना सूत्र का ३५ वां पद)
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