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१८४
श्री विपाक सूत्र -
[प्रथम अध्याय
अयम? पएणते, दोच्चस्स णं भंते! अझयणस्स दुहविवागाणं समणेणं जाव संपत्तेण के अट्ठ पएणते ? तते णं से सुहम्मे अणगारे जम्बू-अणगारं एवं वयासी-एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियग्गामे णामं नगरे होत्था ऋद्धि० । तस्स णं वाणियग्गामस्स उत्तरपुरथिमे दिसिभाए दतिपलासे णामं उज्जाणे होत्था । तत्थ णं दुइपलासे सुहम्मस्स जक्खस्स जक्खायतणे होत्था । तत्थ णं वाणियग्गामे मित्ते णामं राया होत्था। वएणो। तस्स णं मित्तस्स रगणो सिरी णाम देवी होत्था । वएणो। तत्थ णं वाणियग्गामे कामज्झया णामं गणिया होत्था अहीण० जाव सुरूत्रा । पावत्तरी कलापंडिया, चउसद्धिगणियागुणोववेया, एगूणतीसविसेसे रममाणी, एक्कवीसतिगुणप्पहाणा, बत्तीसपुरिसोवयारकुसला, णवंगसुत्तपडिवोहिया, अट्ठारसदेसी-भासाविसारया, सिंगारागारचारुवेसा, गीयरति गंधवनट्टकुसला, 'संगतगत० सुदरत्थण उसियज्झया सहस्सलंभा, विदिएणछत्तचामरवालवियाणिया, कणोरहप्पयाया वावि होत्था । बहूणं गणियासहस्साणं आहेबच्चं जाव विहरति । - पदार्थ-भंते !- हे भगवन् ! । जति णं - यदि । समणेणं - श्रमण । जाव-यावत् । संपत्तणंसंप्राप्त, भगवान् महावीर ने । दुहविवागाणं-दुःख विपाक के । पढमस्स-प्रथम । अझयणस्सअध्ययन का । अयम?
प्रम?-यह पूर्वोक्त अर्थ। परणत-प्रतिपादन किया है तो। भंते! हे भगवन् !। समणेणं-श्रमण । जाव . यावत् । संपत्तेणं-मोक्ष प्राप्त भगवान् महावीर ने । दुहश्विगाणं-दुःख विपाक गत । दोच्चस्स-दुसरे। अजयणस्स-अध्ययन का । के अ-क्या अर्थ। पराणत्ते कथन किया है। तते णं-तदनन्तर । से- वह । सुहम्मे अणगारे-- सुधर्मा अनगार-श्री सुधर्मा स्वामी जंबूअणगारं- जम्बू अनगार के प्रति । एवं वयासी-इस प्रकार बोले । एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही। जंबू! हे जम्बू ! । तेणं कालेण-उस काल में तथा । तेण समरणं-उस समय में । वाणियग्गामे-वाणिज ग्राम । णाम-नामक नगरे-नगर । होत्था-था। रिद्ध०-जो कि समृद्धि पूर्ण था। तस्स णं - उस । वाणियग्गामस्स बाणिज ग्राम के। उत्तरपुरथिमे-उत्तर पूर्व । दिसिभाए-दिशा के मध्य भाग, अर्थात् ईशान कोण में । दूतिपलासे-दूति पलाश । णामं-- नाम का। उज्जाणे उद्यान । होत्या-था। तत्थ णं-उस । दुइपलासे-दूतिपलारा उद्यान में । सुहम्मस्स-सुधर्मा नाम के ।
(१) संगत -गत-हसित-भणित – विहितविलास - सललितसंलापनिपुणयुक्तोपचारकुशला, संगतेषु-समुचितेषु गतहसित-भणित-विहित-विलाससललित संलापेषु निपुणा, तत्र गतं गमनं राजहंसादिवत् , हसितं स्मित, भणितं-वचनं कोकिलवीणादिस्वरेण युक्त, विहित चेष्टितं, विलासो नेत्रचेष्टा, सललितसंलापा: वक्रोक्तयाद्यालं-- कारसहितं परस्परं भाषणं तेषु निपुणा चतुरा, तथा युक्तेषु समुचितेषूपचारेषु कुशलेति भावः
(२) " -रिथिमियसमिद्धे-ऋद्धिस्तिमितसमृद्धम् " ऋद्धं-नभ.पशि - बहुन - प्रासाद - युक्त बहुजनसंकुलं च, स्तिमित - स्वचक्रपर चक्रभयरहितं,समृद्धं---धनधान्यादि -- महर्द्धिसम्पन्नम् , अत्र पदत्र. यस्य कर्मधारय: । अर्थात् नगर में गगनचुम्बी अनेक बड़े २ ऊचे प्रासाद थे. और वह नगर अनेकानेक जनों से व्याप्त था । वहां पर प्रजा सदा स्वचा पोर पर --चक के भय से रहित थी और वह नगर धन, धान्य आदि महा ऋद्धियों से सम्पन्न था ।
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