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श्री विपाक सूत्र
[प्रथम अध्याय
- 'अद्धतेरस जाति-कुजकोडी-जोणि-पमुह-सत-सहस्साई-अर्द्ध-त्रयोदश-जाति-कुल-कोटी योनि-प्रमुख-शतसहस्राणि -” इन पदों का भावार्थ है कि - मत्स्य आदि जलचर पंचेन्द्रिय जाति में जो योनियां - उत्पत्तिस्थान हैं, उन योनियों में उत्पन्न होने वाली कुनको टयों की संख्या साढ़े बारह लाख है ।
जति. कुलकोटि आदि शब्दों की अर्थ-विचारणा से पूर्वोक्त पद स्पष्टतया समझे जा सकेगें, अतः इन के अर्थों पर विचार किया जाता है...
जाति - शब्द के अनेकों अर्थ हैं, परन्तु प्रकृत में यह शब्द एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों का परिचायक है जलचर पंचेन्द्रिय का प्रस्तुत प्रकरण में प्रसंग चल रहा है । अतः प्रकृत में जाति शब्द से जलचरपंचेन्द्रिय का ग्रहण करना है।
कुलकोटी - जीवसमूह को कुल कहते हैं, और उन कुलों के विभिन्न भेदों-प्रकारों को कोटी कहते हैं । जिन जीवों का वर्ण, गन्ध आदि सम हैं , वे सब जीव एक कुल के माने जाते हैं और जिन का वर्ण गन्ध आदि विभिन्न है. वे जोवसमूह विभिन्न कुलों के रूप में माने गए हैं ।
__ उत्पत्तिस्थान एक होने पर भी अर्थात् एक योनि से उत्पन्न जीवसमूह भी विभिन्न वर्ण गन्धादि के होने से विभिन्न कुल के हो सकते हैं । इस को स्थूनरूप से समझने के लिये गोमय-गोबर का उदाहरण उपयुक्त रहेगा - - वर्षतु के समय उस में-गोबर में विच्छ आदि नानाप्रकार के विभिन्न प्राकार रखने वाले जीव उत्पन्न होने के कारण वह गोबर) उन जीवों को एक योनि है, उस में कृमि, वृश्चिक आदि नाना जातीय जीवसमूह अनेक कुलों के रूप में उत्पन्न होते हैं । अस्तु ।।
यहां-क्या गोबर के समान मत्स्यादि की योनियों में भी विभिन्न जीव उत्पन्न हो सकते हैं ? ."यह प्रश्न उत्पन्न होता है। जिस का उत्तर यह है कि - विकलत्रय (विकलेन्द्रिय-द्वीन्द्रिय. त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीव जैसी स्थिति जलचर और पञ्चेन्द्रिय प्राणियों में नहीं है । वहां के कुलों में विभिन्न वर्णादि तथा विभिन्न प्राकृतियों के जलचरत्व आदि रूप ही लिये जायेंगे, हां, उन कुलों में सम्मूर्छिम (स्त्री और पुरुष के समागम के विना उत्पन्न होने वाले प्राणो) एवं गर्भज (गर्भाशय से उत्पन्न होने वाले प्राणी) की भेद विवक्षा नहीं है।
समाचार पत्र हिन्दुस्तान दैनिक में एक समाच र छपा था कि एक गाय को सिंहाकार बछड़ा पैदा हुआ है। प्राकृति की दृष्टि से तो वह बाह्यत: सिंह जातीय हैं परन्तु शास्त्र की दृष्टि से वह गोजातीय हो है। यही एक योनि से उत्पन्न जीवसमूहों की कुलकोटि की विभिन्नता का रहस्य है।
योनि- का अर्थ है- उत्पत्तिस्थान । तैजस कामण शरीर को तो आत्मा साथ लेकर जाता है, फलतः जिस स्थान पर आदारिक और वैफियशरीर के योग्य पुद्गलों को ग्रहण कर तत्तत् शरीर का निर्माण करता है, वह स्थ न योनि कहलाता है ।
योनियों की संख्या नीयत नहीं है, वे असंख्य है । फिर भी जिन योनियों का परस्पर वर्ण, गन्ध रस, स्पर्श आदि एक जैसा है उन अनेक योनियों को भी जाति की दृष्टि से एक गिना जाता है, और इस प्रकार विभिन्न वर्णादि की अपेक्षा से यो नयों के ८४ लाख भेद माने जाते हैं । जैसा कि प्रज्ञापनासूत्र की वृत्ति में लिखा है -
(१) इन पदों की व्याख्या टीकाकार आचार्य अभयदेव सूरी के शब्दों म निम्नोक्त है
" --जातौ पंचेन्द्रियजाठौ या कुल कोटयः तास्तथा ताश्च ता योनिप्रमुखाश्च चतुर्लक्षसंख्यपञ्चेन्द्रियोत्यत्तिस्थानद्वारकास्ता जातिकुल कोटि-योनिप्रमुखाः, इ च विशेषणं परपदं प्राकृतत्वात् । इदमुक्तं भवति पञ्चेन्द्रियजातौ या योनयः तत्प्रभाः याः कुलकोट्यस्तासां लक्षाणि साद्वादश प्रज्ञप्तानि, तत्र योनिय थागोमयः , तत्र चेकस्यामपि कुलानि विचित्राकारः कृम्यादयः।
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