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प्रथम अध्याय
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
मूलार्थ --गौतम स्वामी के प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान ने कहा कि -हे गौतम ! यह मृगापुत्र २६ वर्ष की पूर्ण आयु भोग कर कल--मास में काल कर के इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारत वर्ष के वैताढ्य पर्वत की तलहटी में म्हि रूप से सिंहकुल में जन्म लेगा, अर्थात यह वहां सिंह बनेगा, जोकि महा अधमी और साहसी बन कर अधिक से अधिक पाप कर्मों का उपार्जन करेगा। फिर वह सिंह समय आने पर काल करके इस रत्नप्रभा नाम की पृथिवी-पहली नरक में-जिसकी उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम की है, उस में उत्पन्न होगा, फिर वह वहां से निकल कर सीधा भुजाओं के बल से चलने वाले अथवा पेट के बल चलने वाले जीवों की योनि में उत्पन्न होगा। वहां से काल कर के दूसरी पृथवी-दूसरी नरक-जिसकी उत्कृष्ट स्थिति तीन सागरोपम की है-में उत्पन्न होगा । वहां से निकल कर सीधा पक्षियोनि में उत्पन्न होगा, वहां पर काल करके तीसरी नरक भूमी-जिसकी उत्कृष्टस्थिति सात 'सागरोपम की है, में उत्पन्न होगा । वहां से निकल कर सिंह की योनि में उत्पन्न शेगा। वहां पर काल करके चौथी नरक-भूमि में उत्पन्न होगा। वहां से निकल कर मर्प बनेगा । वहां से पांचवीं नरक में उत्पन्न होगा, वहां से निकल कर स्त्री बनेगा । वहां से काल करके छठी नरक में उत्पन्न होगा। वहां से निकल कर पुरुष बनेगी । वहां पर काल करके सब से नीची सातवां नरक-भूमी में उत्पन्न होगा । वहां से निकल कर जो ये जलचर पंचेन्द्रिय तियचों में मत्स्य, कच्छप, ग्राह, मकर और सुसुमार आदि जलचर पञ्चेन्द्रिय जाति में योनियां-उत्पत्तिस्थान हैं, उन योनियों से उत्पन्न होने वाली कुल कोटियों (कुल-जीवसमूह, कोटि-भेद) की संख्या साढ़े बारह लाख है, उन के एक एक योनिभेद में लाखों बार जन्म और मरण करता हआ इन्ही में बार २ उत्पन्न होगा अर्थात् श्रावा गमन करेगा। तत् पश्चात् वहां से निकल कर चौपायों में, छाती के बल चलने वाले, भुजा के बल चलने वाले तथा आकाश में विचरने वाले जोवों में एवं चार इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय और दो इन्द्रिय वाले प्राणियों तथा वनस्पतिगत कटु वृक्षों, और कटु दुग्ध वाले वृक्षों में, वायु, तेज, जल और पृथिवी काय में लाखों बार उत्पन्न होगा ।।
तदनन्तर वहां से निकल कर वह सुप्रतिष्ठ पुर नाम के नगर में वृषभ-(बैल) रूप से उत्पन्न होगा। जब वह बाल भाव को त्याग कर युवावस्था में आवेगा तब गंगा नाम की महानदी के किनारे की मृत्तिका को खोदता हश्रा नदी के किनारे के गिर जाने पर पीडित होता हुआ मृत्यु को प्राप्त हो जायगा, मृत्यु को प्राप्त होने के बाद वह वहीं सुप्रतिष्ठ पुर नामक नगर में किसी श्रेष्ठी के घर पुत्र रूप से उत्पन्न होगा वहां पर बालभाव को त्याग कर युवावस्था को प्राप्त करने के अनन्तर वह साधु-जनोचित सद्-गुणों से युक्त किन्हीं ज्ञान वृद्ध जैन साधुओं के पास धर्म को सुनेगा, सुनकर मनन करेगा तदनन्तर मुंडित होकर अग्गरवृत्ति को त्याग कर अनगार धर्म को प्राप्त करेगा अर्थात् गृहस्थावास से निकल कर साधु-धर्म को अंगीकार करेगा । उस अनगार-धर्म में ईयामितियुक्त यावत् ब्रह्मचारी होगा। वहां बहुत वर्षों तक श्रामण्यपर्याय-दीक्षावतका पालन कर आलोचना और प्रतिक्रमण से आत्मशुद्धि करता हुआ समाधि को प्राप्त कर समय आने पर काल करके सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में देवरूप से उत्पन्न होगा । तदनन्तर देवभव की स्थिति पूरी हो जाने पर वहां से च्यव कर महाविदेह क्षेत्र में, जो धनाढ्य कुल हैं उन में उत्पन्न होगा, वहां उसका कलाभ्यास, पव्रज्याग्रहण यावत् मोक्षगमन इत्यादि सब वृत्तांत दृढ़-प्रतिज्ञ की भांती जान लेना।
सुधर्मा स्वामी कहते हैं कि-हे जम्बू ! इस प्रकार निश्चय ही श्रमण भगवान महावीर ने
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