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७४]
श्री विपाक सूत्र
[प्रथम अध्याय
कि उन का शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार का श्रम व्यर्थ जाने-निष्फल होने से वे अत्यन्त खिन्नचित्त हुए और वापिस लौट गए ।
इस प्रकार एकादि राष्ट्रकूट के शरीर-गत रोगों की चिकित्सा के निमित्त आये हुए वैद्य, ज्ञायक और चिकित्सकों के असफल होकर वापिस जाने के अनन्तर एकादि राष्ट्रकूट की क्या दशा हुई अब सूत्रकार उस का वर्णन करते हैं -
मूल---'तते णं एक्काइ० विज्जेहि य पड़ियाइक्खिए परियारगपरिचत्ते निविएणोसहभेसज्जे सोलसरोगातंकेहिं अभिभूते समाणे रज्जे य रतु य जाव अंतेउरे य मुच्छिते रज्जं च आसाएमाणे पत्थेमाणे पीहेमाणे अहिलसमाणे अट्टहट्टवसदृ अड्ढाइज्जाई वाससयाई परमाउं पालयिता कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्कोससागरोवमद्वितीएसु नेर: एसु णेरइयत्ताए उववन्ने । से णं ततो अणंतरं उचट्टिता इहेव मियग्गामे णगरे विजयस्स खत्तियस्स मियाए देवोए कुच्छिंसि पुत्तत्ताए उववन्ने।
पदार्थ-तते णं तदनन्तर । विज्जेहि य-वैद्यों के द्वारा । पड़ियाइक्खिए- प्रत्याख्यातनिषिद्ध किया गया। परियारगपरिचते-परिचारकों नौकरों द्वारा परित्यक्त त्यागा गया। निव्विरणोसहभेसज्जे-औषध और भैषज्य से निर्विण्ण-विरक्त, उपराम । सोलसरोगातंकेहिं-१६ रोगातंकों से । अभिभूते समाणे- खेद को प्राप्त हुआ। एक्काइ०- एकादि राष्ट्रकूट । रज्जे य-राज्य में । र? य-और राष्ट्र में। जावयावत् । अन्तेउरे य-अन्तः पुर-रणवास में । मुच्छिते-मूछित आसक्त तथा । रज्जं च-राज्य और राष्ट्र का । आसाएमाणे-आस्वादन करता हुआ । पत्थेमाणे- प्रार्थना करता हुआ। पीहेमाणे-स्पृहाइच्छा करता हुअा । अहिलसमाणे-अभिलाषा करता हुआ । अट्ट-पात - मानसिक वृत्तियों से दुःखित दुहह-दुःखात - देह से दुखी अर्थात् शारीरिक व्यथा से आकुलित । वस?- वशात --- इन्द्रियों के वशीभूत होने से पीड़ित । अड्ढाइज्जाई वाससयाई-अढाई सौ वर्ष ।परमाउं- परमायु, सम्पूर्ण आयु । पालयित्तापालन कर । कालमासे - कालमास में । कालं किच्चा- काल मृत्यु को प्राप्त कर । इमीसे-- इस रयणपहाए - रत्नप्रभा नामक । पुढवोर - पृथिवी-नरक में । उक्कोस-सागरोवहितीए.सु- उत्कृष्ट सगरोपम स्थिति वाले । नेरइएसु-नारकों में । णेरइयत्ताए-नारकरूप से । उववन्ने-उत्पन्न हुआ । तते णं-- तदनन्तर । से-वह एकादि । अणंतंर - अन्तर रहित बिना अन्तर के । उध्वहिता-नरक से निकल कर । इहेव-इसी। मियग्गामे-मृगाग्राम नामक । णगरे-नगर में । विजयस्स-विजय नामक । खत्तियस्सक्षत्रिय की। मियाए देवीए-मृगादेवी की । कुञ्छिसि - कुक्षि में-उदर में । पुत्तत्ताए-पुत्ररूप से उववन्ने- उत्पन्न हुअा।
मूलार्थ- तदनन्तर वैद्यों के द्वारा प्रत्याख्यात [ अर्थात इन रोगों का प्रतिकार हमसे
(१) छाया-ततः एकादिवैद्य श्च प्रत्याख्यात: परिचारकपरित्यक्तः निर्विरणौषधभैषज्यः षोड़शरोगातंकः अभिभूतः सन् राज्ये च राष्ट्र च यावद् अन्तःपुरे च मूर्छितः ४ राज्यं च आस्वदमानः प्रार्थयमानः स्पृहमाणः अभिलषमाणः अार्तदुःखार्तवशार्तः अर्द्धतृतीयानि वर्षशतानि परमायुः पालयित्वा कालमासे कालं कृत्वा, अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां उत्कृष्टसागरोपमस्थितिकेषु नैरयिकेषु नैरयिकतयोपपन्नः, स ततोऽनन्तरमुवृत्य, इहैव मृगाग्रामे नगरे विजयस्य क्षत्रियस्य मृगाया देव्याः कुक्षौ पुत्रतयोपपन्नः ।
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