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श्री विणक सूत्र
fप्रथम अध्याय
शब्द फूटे कांस्य पात्र के समान हो, मनीषी-वैद्यलोग उसे कास-अर्थात् खांसी का रोग कहते हैं । (३) ज्वर - स्वोदावरोधः सन्तापः, सांगग्रहणं तथा ।
युगपद् यत्र रोगे तु, स ज्वरो व्यए दिश्यते ॥१४३।।
[वंगसेने ज्वराधिकारः] अर्थात् — पसीना न आना, शरीर में सन्ताप का होना, और सम्पूर्ण अंगों में पीड़ा का होना, ये सब लक्षण जिस रोग में एक साथ हों उस को ज्वर कहते हैं । ज्वर के वातज्वर, पित्तज्वर, कफज्वर द्विदोषज्वर इत्यादि अनेकों भेद लिखे हैं । जिन्हें वैद्यक ग्रन्थों से जाना जा सकता है।
(४) दाह--- एक प्रकार का रोग है, जिस से शरीर में जलन प्रतीत होती है । माधवनिदान आदि वैद्यक ग्रन्थों में दाइ – रोग सात प्रकार का बतलाया गया है। जैसे कि --- प्रथम प्रकार में मदिरा के सेवन करने से पित्त और रक्त दोनों प्रकुपित हो कर समस्त शरीर में दाह पैदा कर देते हैं, यह दाह केवल त्वचा में अनुभव किया जाता है । द्वितीय प्रकार में रक्त का दबाव बढ़ जाने से देह में अग्निदग्ध के समान तीव्र जलन होती है, अांखें लाल हो जाती हैं, त्वचा ताम्बे की तरह तप जाती है, तृष्णा बढ़ जाती है और मुख मे लोहे जैसी गन्ध आती है। तृतीय प्रकार में---गला, अोठ मुंह, नाक, पक जाते हैं, पसीना निद्राभाव, वमन, तीव्र अतिसार दस्त), मूर्छा, तन्द्रा, और कभी २ प्रलाप भी होने लगता है। चतुर्थ प्रकार में— प्यास के रोकने से शरीरगत अब्धातु (जल) प्रकुपित हो कर शरीर में दाह उत्पन्न करता है । गल, ओंठ और तालु सूखने लगता है एवं शरीर कांपने लग जाता है। पांचवां दाह हथियार की चोट से निसृत रक्त से जिसके कोष्ठ भर गये हैं, उस को हुआ करता है, यह अत्यन्त दुस्तर होता है । छठे प्रकार में -- मूर्छा, तृष्णा होती है, स्वर मन्द पड़ जाता है, शरीर में दाह के साथ साथ रोगी क्रियाहीनता का अनुभव करता है । सातवां दाह --मर्माभिघात होने के कारण होता है, यह असाध्य होता है ।
आधुनिक वैज्ञानिकों के शब्दों में यदि कहा जाए तो-कैलशियम, पैन्टोथेनेट (Calcium, Pantothenate) नामक द्रव्य की कमी के आ जाने से हाथ तथा पांव में जलन हो जाती है ----यह कह सकते हैं ।
(५) कुक्षिशूल--पावशूल का ही दूसरा नाम कुक्षिशूल है । शूलरोग में प्रायः वात को ही प्राधान्य प्राप्त है । वंगसेन के शूलाधिकार में लिखा है कि-वृद्धि को प्राप्त हुआ वायु हृदय, पाश्र्व, पृष्ठ, त्रिक और बस्ति स्थान में शूल को उत्पन्न करता है । वायुः प्रवृद्धो जनयेद्धिशूलं हत्पार्श्वपृष्ठत्रिकबस्तिदेशे।
शूल (वायु के प्रकोप से होने वाला एक प्रकार का तेज दर्द) यह एक भयंकर व्याधि है और इसकी गणना सद्यः प्राणहर व्याधियों में है। (६) भगन्दर- गुदस्य द्वयं गुले क्षेत्र, पार्श्वतः पिटिकार्तिकृत् ।
भिन्ना भगन्दरो शेयः, स च पंचविधो मतः ॥१॥
(माधवनिदाने भगन्दराधिकारः ) अर्थात् --गुदा के समीप एक बाजू पर दो अंगुल ऊंची एक पिटिका-फुन्सी होती है, जिस में पीड़ा अधिक हा करती है, उस पिटिका-फुन्सी के फूट जाने के अनन्तर की अवस्था को भगन्दर कहते हैं, और वह पांच प्रकार का है । अभिधान चिन्तामणी काण्ड ३ श्लोक १२५ की व्याख्या में प्राचार्य हेमचन्द्र जी ने भगन्दर शब्द की निरुक्ति या व्युत्पत्ति इस प्रकार की है "भगं दारयतीति भगन्दरः" भग अर्थात् गुह्य और मुष्क - गुदा तथा अण्डकोष के मध्यवर्ती स्थान को जो विदीर्ण करे उस का नाम भगन्दर है । किसी किसी आचार्य का यह
(१) शब्दस्तोम महानिधि कोष में भग शब्द से गुह्य और मुष्क के मध्यवर्ती स्थान का ग्रहण
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