________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
प्रथम अध्याय
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
हे गोतम ! । सेकेणं-वह कोन । तहारूवे -तथारूप - ऐसे । णाणो-ज्ञानो । तवस्ती वा-अथवा तपस्वी हैं। जेण -जिस ने। तव एसम? --आपको यह बात, जो कि । मम ताव रहस्सकते-मैंने गुप्त रक्खी थी । तुब्भं हव्वाक्खाते-तुम्हे शीघ्र ही बतलादी । जतो णं-जिस से कि । तुब्भे जाणह- तुम ने उसे जान लिया।
मूलार्थ -- हे गौतम ! इसी मृगाग्राम नामक नगर में विजय नामक क्षत्रिय राजा का पुत्र मृगादेवी का आत्मज मृगापुत्र नामक बालक है जो कि जन्म काल से अंधा और जन्मांधकरूप है, उस के हाथ, पांव नेत्र
आदि अंगोपांग भो नहीं हैं, केवल उन अंगोपांगों के आकार-चिन्ह ही हैं । महाराणी मृगादेवी उस का पालन पोषण बड़ी सावधानी के साथ कर रही हैं । तदनन्तर भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के चरणो में वंदना नमस्कार कर के उन से प्रार्थना की, कि भगवन् ! आप की आज्ञा से मैं मृगापत्र को देखना चाहता हूँ ?, इत के उत्तर में भगवान् ने कहा कि - गौतम ! जैसे तुम्हें सुख हो [वैसा करो, इस में हमारी तर्फ से कोई प्रतिबन्ध नहीं है ] | अब श्रमण भगवान् द्वारा आज्ञा प्राप्त कर प्रसन्न हुए गौतम स्वामी भगवान् के पास से मृगापुत्र को देखने चले' । ईर्यासमिति (विवेक पूर्वक चलना) का यथाविधि पालन करते हुए भगवान् गौतम स्वामी ने नगर के मध्यभाग से नगर में प्रवेश किया । जिस स्थान पर मृगादेवी का घर था, वे वहां पर पहुँच गये। तदनन्तर मृगादेवो ने गौतम स्वामी को आते हुए देखा ओर देख कर प्रसन्न-चित्त से नतमस्तक होकर उन से इस प्रकार निवेदन कियाहे देवानुप्रिय ! अर्थात हे भगवन् ! श्राप के आगमन का क्या प्रयोजन है ? अथात् श्राप किस प्रयोजन के लिये यहां पर पधारे हैं ? उत्तर में भगवान् गौतम स्वामी ने मृगादेवी से कहा-हे देवान प्रये !, अ हे भद्र !, मैं तुम्हारे पुत्र को देखने के लिये ही आया हूँ। तब मृगादेवी ने मृगापुत्र के पश्चात् उत्पन्न हुए २ पत्रों को वस्त्राभूषणादि से अलंकृत कर भगवान् गौतम के चरणों में डाल कर निवेदन किया कि भगवन् ! ये मेरे पत्र हैं इन को श्राप देख लीजिए । यह सुन कर भगवान् गौतम मृगादेवी से बोले - हे देवानुप्रिये ! मैं तुम्हारे इन पत्रों को देखने के लिये यहां पर नहीं आया हूँ, किन्तु तुम्हारा ज्येष्ठ पुत्र मृगापुत्र जो जन्मांध और जन्मांधकरूप है, तथा जिस को तुम ने एकांत के भूमिगृह में रक्खा हुआ है एवं जिस का तुम गुप्तरूप से सावधानता-पूर्वक खान पान आदि के द्वारा पालन पोषण कर रही हो, उसे देखने के लिये आया हूँ ? यह सुन कर मृगादेवी ने भगवान् गौतम से (आश्चर्यचकित हो कर) निवेदन कियाभगवन् ! वह ऐसा ज्ञानी अथवा तपस्वी कौन है ? जिस ने मेरी इस रहस्य –पूर्ण गुप्त वार्ता को आप से
होती परन्तु अपने अत्यन्त गुप्त रहस्य के प्रकाश में आ जाने से मृगादेवी हक्की बाकी सी रह गई, जिस के कारण उस के मुख से सहसा 'गोतमा !” ऐसा निकल गया है, जो संभ्रान्त दशा के कारण शिष्टता का घातक नहीं कह जा सकता । हृदयगत चंचलता में यह सब कुछ संभव होता है ।
(१) प्रश्न चरम-तीर्थकर भगवान महावीर स्वामी सर्वज्ञ थे, सर्वदर्शी थे, उन की ज्ञान ज्योति से कोई पदार्थ अोझल नहीं था। यही कारण है कि उन को वाणी में किसी प्रकार की विषमता नहीं होती थी, वह पूर्णरूपेण यथार्थ ही रहती थी । परन्तु अनगार गौतम मृगापुत्र को स्वयं अपनी आंखों से देखने जा रहे हैं जब कि भगवान् से उस का समस्त वृत्तान्त सुन लिया जा चुका है । क्या यह भगवद्-वाणी पर अविश्वास नहीं है।
For Private And Personal