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श्री विपाक सूत्र
२८ ]
[ प्रथम अध्याय
का समाचार मिलते ही ] उनके दर्शनार्थ जनता नगर से चल पड़ी । तदनन्तर विजय नामक क्षत्रिय राजा भी महाराज कुणिक की तरह भगवान् के चरणों में उपस्थित हो कर उन की पर्युपासना-सेवा करने लगा। नगर के कोलाहलमय वातावरण को जान कर वह जन्मान्ध पुरुष, उस पुरुष के प्रति इस प्रकार बोला - हे देवानुप्रिय ! हे भद्र ! ) क्या आज मृगाग्राम में इन्द्रमहोत्सव है जिस के कारण जनता नगर से बाहर जा रही है ? उस पुरुष ने कहा
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देवानुप्रिय ! आज नगर में इन्द्रमहोत्सव नहीं, किन्तु [बाहर चन्दन पादप नामा उद्यान में ] श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पधारे है, वहां यह जनता उनके दर्शनार्थ जा रही है। तब उस अन्धे पुरुष ने कहा- चलो हम भी चलें, चलकर भगवान् की पयुपासना-सेवा करेंगे तदनन्तर दण्ड के द्वारा आगे को ले जाया जाता हुआ वह पुरुष जहां पर श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे वहां पर आ गया, श्राकर उस जमान्ध पुरुष ने भगवान् की तीन बार दाहिनी ओर से आरम्भ करके प्रदक्षिणा को प्रदक्षिणा कर के वन्दना और नमस्कार किया, तत्पश्चात् वह भगवान् की पर्युपासना-सेवा में तत्पर हुआ। तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर ने विजय राजा और परिषद्- जनता को धर्मोपदेश दिया भगवान् की कथा को सुनकर राजा विजय तथा परिषद् चली गई । उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के प्रधान शिष्य इन्द्रभूति नाम के नगर [ गौतम गणधर ] भी वहां विराजमान थे । भगवान् गौतम स्वामी ने अन्धे पुरुष की देखा देखकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से निवेदन किया - क्या भदन्त ! कोई ऐसा पुरुष भी है कि जो जन्मान्ध तथा जन्मान्धरूप हो ? भगवान् ने फर्माया - हां, गौतम ! है गौतम स्वामी ने पुनः पूछा- हे भदन्त ! वह पुरुष कहां है जो जन्मान्ध (जिस के नेत्रों का आकार तो है परन्तु उस में देखने की शक्ति न हो) और जन्मान्धरूप ( जिस के शरीर में नेत्रों का आकार भी नहीं बन पाया, अत्यन्त कुरूप ) है ? |
टीका - प्रस्तुत सूत्र में एक जन्मान्ध व्यक्ति के जीवन का परिचय कराया गया है । सूत्रकार कहते हैं।
कि मृगाग्राम नगर में वह निवास किया करता था, उस के पास एक सहायक था जो लाठी पकड़ कर उसे चलने में सहायता देता था, पथ-प्रदर्शक का काम किया करता था । उस जन्मान्ध की शारीरिक अवस्था बड़ी घृणित थं सिर के बाल अत्यन्त बिखरे हुए थे, पागल के पीछे जैसे सैंकड़ों उद्दण्ड बालक लग जाते हैं और उसे तंग करते हैं, वैसे ही उस व्यक्ति को मक्खियों के झुण्डों के झुण्ड घेरे हुए रहते थे जो उस की अन्तर्वेदना को बढ़ाने का कारण बन रहे थे। वह मृगाग्राम के प्रत्येक घर में घूम २ कर भिक्षावृत्ति द्वारा अपने दुःखी जीवन को जैसे तैसे चला रहा था ।
१ २
"मच्याच डगर पहकरेणं श्ररिणज्जमानमग्गे - मक्षिकाप्रधान समूहेनान्वीयमानमार्गः” यह उल्लेख तो उस अन्धपुरुष की अत्यधिक शारीरिक मलिनता का पूरा २ निदर्शक है । मानो वह अन्धपुरुष दरिद्र नारायण की सजीव चलती फिरती हुई मूर्ति ही थी ।
उस काल तथा उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी चन्दनपादप नामा उद्यान में पधारे, उन के आगमन का समाचार मिलते ही नगर की जनता दर्शनार्थ नगर से उद्यान प्रस्थित हुई । इधर विजय नरेश भी भगवान् महावीर स्वामी के पधारने की सूचना मिलने पर महराजा कूणिक की भांति बड़े प्रसन्नचित्त से राजोचित महान् वैभव के साथ नगर से उद्यान की ओर
की
(१) वचन से स्तुति करना वन्दना है, काया से प्रणाम करना नमस्कार कहलाता है ।
(२) “ मच्छियाचडगर पहकरेणं ” – मक्षिकाणां प्रसिद्धानां चटकरः प्रधानो विस्तरवान् यः प्रहकरः समूहः स तथा, अथवा मक्षिकाणां चटकराणां तद् वृन्दानां यः प्रहकरः स तथा तेन "अणिज्जमाणमग्गे" अन्वीयमानमार्गोऽनुगम्यमानमार्गः मलाविलं हि वस्तु प्रायो मक्षिकाभिरनुगम्यत एवेति भाव:[वृत्तिकारः ]
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