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प्रथम अध्याय
हिन्दी भाषा टीका सहित।
ईहा के पश्चात् अवाय का ज्ञान होता है । जिस के सम्बन्ध में ईहा ज्ञान हुआ है, उसके सम्बन्ध में निर्णय-निश्चय पर पहुँच जाना अवाय है । “यह अमुक वस्तु हो है" इस ज्ञान को अवाय कहते हैं । "यह खड़ा हुआ पदार्थ ठूराठ होना चाहिय" इस प्रकार का ज्ञान ईहा और यह पदार्थ यदि मनुष्य होता है तो बिना हिले डुले एक ही स्थान पर खड़ा न रहता, इस पर पक्षी निर्भय हो कर न बैठता, इसलिये यह मनुष्य नहीं है, ठूण्ठ ही है, इस प्रकार का निश्चयात्मक ज्ञान अवाय कहलाता है। अर्थात् जो है उसे स्थिर करने वाला और जो नहीं है, उसे उठाने वाला निर्णय रूप ज्ञान अवाय है।
चौथा ज्ञान धारणा है। जिस पदार्थ के विषय में अवाय हुआ है, उसी के सम्बन्ध में धारणा होती है। धारणा स्मृति और संस्कार ये एक ही ज्ञान की शाखायें हैं । जिस वस्तु में अवाय हुआ है उसे कालान्तर में स्मरण करने के योग्य सुदृढ बना लेना धारणा ज्ञान है । कालान्तर में उस पदार्थ को याद करना स्मरण है और स्मरणा का कारण संस्कार कहलाता है ।
तात्पर्य यह है कि अवाय से होने वाला वस्तुतत्त्व का निश्चय कुछ काल तक तो स्थिर रहता है और मन का विषयान्तर से सम्बन्ध होने पर वह लुप्त हो जाता है परन्तु लुप्त होने पर भी मन पर ऐसे संस्कार छोड़ जाता है कि जिस से भविष्य में किसी योग्यनिमित्त के मिल जाने पर उस निश्चय किए हुए विषय का स्मरण हो पाता है । इस निश्चय की सततधारा, धाराजन्य संस्कार तथा संस्कारजन्य स्मृति ये सब धारण के नाम से अभिहित किए जाते हैं । यदि संक्षेप में कहें तो अवाय द्वारा प्राप्त ज्ञान का दृढ संस्कार धारणा है।
पहले प्राचार्य का कथन है कि जम्बूस्वामी को प्रथम श्रद्धा, फिर संशय और कौतूहल में प्रवृत्ति हुई । ये तीनों अवग्रह ज्ञान रूप हैं । प्रश्न होता है कि यह कैसे मालूम हुआ कि जम्बू स्वामी को पहले पहल अवग्रह हुअा ? इस का उत्तर यह है - पृथ्वी में दाना बोया जाता है। दाना, पानी का संयोग पाकर पृथ्वी में गीला होता है-फूलता है और तब उस में से अंकुर निकलता है। अंकुर जब तक पृथ्वी से बाहर से नहीं निकलता, तब तक दीख नहीं पड़ता । मगर जब अंकुर पृथ्वी से बाहिर निकलता है, तब उसे देख कर हम यह जान लेते हैं कि यह पहले छोटा अंकुर था जो दीख नहीं पड़ता था, मगर था वह अवश्य, यदि छोटे रूप में न होता तो अब बड़ा होकर कैसे दीख पड़ता ? इस प्रकार बड़े को देख कर छोटे का अनुमान हो ही जाता है । कार्य को देख कर कारण को मानना ही न्याय संगत है । बिना कारण के कार्य का होना असंभव है।
इसी प्रकार कार्य कारण के सम्बन्ध से यह भी जाना जा सकता है कि जो ज्ञान ईहा के रूप में आया है वह अवग्रह के रूप में अवश्य 4 I, क्यों के बिना अवग्रह के ईहा का होना सम्भव नहीं है । जम्बस्वाभी छद्मस्थ थे । उन्हें जो मतिज्ञान होता है वह इन्द्रिय और मन से होता है। इन्द्रिय तथा मन से होने वाले ज्ञान में बिना अवग्रह के ईहा नहीं होती।
___ सारांश यह है कि पहले के "जायसड्ढे, जायसंसर" और "जायकोउहल्ले" ये तीन पद अवग्रह के हैं । “उत्पन्नसड्ढे, उप्पन्नसंसर" और "उत्पन्न कोउहल्ले" ये तीन पद ईहा के हैं । "संजायसड्ढे, संजायसंसर" और "संजायको उहल्ले" ये तीन पद अवाय के हैं । और "समुप्पन्नसड्ढे, समुप्पन्नसंसर” तथा “सप्मुन्नकोउहल्ले" ये तीनों पद धारणा के हैं।
इसके आगे जम्बूस्वामी के सम्बन्ध में कहा है कि "उट्ठाए उढेई" अर्थात् जम्बस्वामी उठने के लिये तैयार हो कर उठते हैं। प्रश्न - होता है कि यहां "उट्ठाए उट्टेइ" ये दो पद क्यो दिये गये हैं ? इसका
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