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प्रथम अध्याय ]
हिन्दी भाषा टीका सहित ।
[ १५
अन्तिम ६ पदों में से पहले के तीन पद इस प्रकार हैं- " संजायसड्ढे, संजायसंसए, संजायकोउ हल्ले" | इन तीनों पदों का अर्थ वैस ही है, जे कि "जाय सड्दे जायसंसंप और जायको हल्ले” पदों का बतलाया जा चुका है । अन्तर केवल यही है, कि इन पदों में 'जाय' के साथ 'सम्' उपसर्ग लगा हुआ है । 'जय' का अर्थ है प्रवृत ओर 'मम्' उसर्ग अत्यन्तता का बोधक है । जैसे मैंने कहा, इस स्थान पर व्यवहार में कहते हैं- 'मैंने खूब कहा' मैं बहुत चला' इत्यादि । इस प्रकार जैसे अत्यन्तता का भाव प्रकट करने के लिये बहुत या खूब शब्द का प्रयोग किया जाता है, उसी प्रकार शास्त्रीय भाषा में अत्यन्तता बतलाने के लिये 'सम्' शब्द लगाया जाता है, अतएव तीनों पदों का यह अर्थ हुआ कि-- बहुत 'श्रद्धा हुई' बहुत संशय हुआ और बहुत कौतूहल हुआ और इसी प्रकार "समुत्पन्नसड्ढे समुन्नसंस" और "समुपपन्नको हल्ले" पदों का का भाव भी समझ लेना चहिये ।
इन पदों के इस अर्थ में आचार्यों में किंचिद् मतभेद है । कोई श्राचार्य इन बारह पदों का अर्थ अन्य प्रकार से भी करते हैं । वे 'श्रद्धा' पद का अर्थ 'पूछने को इच्छा' करते हैं । और कहते हैं कि श्रद्धा अर्थात् 'पूछने की इच्छा' संशय से उत्पन्न होती है और संशय कौतूहल से उत्पन्न हुआ । यह सामने ऊंची सी दिखाई देने वाली वस्तु मनुष्य है या ठूठ है इस प्रकार का अनिश्चयात्मक ज्ञान संशय कहलाता है, इस प्रकार व्याख्या करके आचार्य एक दूसरे पद के साथ सम्बन्ध जोड़ते हैं । अर्थात् श्रद्धा के साथ संशय का, और संशय से कौतूहल का सम्बन्ध जोड़ते हैं । कौतूहल का अर्थ उन्हों ने यह किया है हम यह बात कैसे जानेंगे ? इस प्रकार की उत्सुकता को कौतूहल कहते हैं । इस प्रकार व्याख्या करके वे आचार्य कहते हैं कि इन बारह पदों के चार चार हिस्से करने चाहिये । इन चार हिस्सों में एक हिस्सा अवग्रह का है, एक ईहा का है, एक अवाय का है और एक धारणा का है । इस प्रकार इन चार विभागों में बारह पदों का समावेश हो जाता है ।
दूसरे आचार्य का कथन है कि इन बारह पदों का समन्वय दूसरी ही तरह से करना चाहिये । उनके मन्तव्य के अनुसार बारह पदों के भेद करके उन्हें अलग अलग करने की आवश्यकता नहीं हैं । जात, संजात, उत्पन्न, समुत्पन्न इन सब पदों का एक ही अर्थ है । प्रश्न होता कि एक ही अर्थ वाले इतने पदों का प्रयोग क्यों किया गया ? इसका वे उत्तर देते हैं कि करने के लिये इन पदों का प्रयोग किया गया है ।
भाव के बहुत स्पष्ट
एक ही बात को बार बार कहने से पुनरुक्ति दोष आता है । अगर एक ही भाव के लिये अनेक पदों का प्रयोग किया गया तो यहां पर भी यह दो क्यों न होगा ? इस प्रश्न का उत्तर उन आचार्यों ने यह दिया है कि-स्तुति करने में पुनरुक्ति दोष नहीं माना जाता । शास्त्रकार ने विभिन्न पदों द्वारा एक ही बात कह कर श्री गौतमस्वामी की प्रशंसा की है अतएव बार बार के इस कथन को पुनरुक्ति दोष नहीं कहा जा सकता, इसका प्रमाण यह है वक्ता हर्ष भयादिभिराक्षिप्तमनाः स्तुवंस्तथा निंदन् । यत् पदमसकृद् ब्रूते तत्पुनरुक्तं न दोषाय ॥
अर्थात् हया भय आदि किसी प्रबल भाव से विक्षिप्त मन वाला वक्ता, किसी की प्रशंसा या निन्दा करता हुआ अगर एक ही पद को बार-बार बोलता है तो उसमें पुनरुक्ति दोष नहीं माना जाता । जिन आचार्य के मतानुसार इन बारह पदों को अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा में विभक्त किया गया है । उनके कथन के आधार पर यह प्रश्न हो सकता है कि अवग्रह आदि का
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