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नुः || मा ब्राह्मणालोगी पुरुष विविविधप्रकारमा बसि पिज्ञानी चि नोकतेन्तेनीक वनबोसेन्त तेसाघापूजा पापर्नुकारापन अ.१५ १०७|| माहपालोश्य विविहाय सिप्पिएो ताराप्रमुष नोनेसि वयसि लोगपूयं बोलवाते तंपरिलाय जाएीन मवर्ने सब ने साधु
गिच टास्ने पञ्चारित्रपणे दीगहोए अगृहस्पो बपि सं पस्चि परिवए सलिस्तू ॥॥ गिहिपोजे पवइएपादिछा अप्पचइएएय संथुया| यवतहोये लेतेवेभकारनाग्रहस्प संघाने रहसोकना फसने श्र जेजेपरिचयने न० नकरे ने साधु १० हवेद्या । तेसिं शहलो श्य फसच्याए जेसंयवं नकरेई सत्निरकू ॥१०॥ सोलपादिक संपारो पाट प्रमुष पापीलोजन बिन अनेक प्रकारमा स्वारयादिमसादिमनेफअ अपादेवेकरी पक्षनिषेद्यो निसा सयपासणपाएालोय ॥ विविहवाश्मसाइमं परेसिंह अदए पमिसेहिए नियं ने अजेनिहाँद्देषन करे सब ने साधु ११ जेजेकांरअसनादिक पाएी विरुअनेक प्रकारना रवा करवादिमा
॥जे तब नपर्नुस सनिस्कू ॥११॥ जंकिंचि आहारपाएविविहं ॥ स्वाश्मंसा सादिमने पगृहस्वयकीपा जोज्जेसाघुतै आहारादिक करीमनवचनकायाएंकरी साधुने संवित्मागनकरे मनवचनकायाएंकरीसंग | १५८ मं परेसिखा ॥ जो तं निविहेएं नाएक कप्पे महावयपकायस संयुझे लखो संघरचन
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