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( २९ )
॥ श्रीविजयने भिमूरिपञ्चविंशिका | ॥ उपजातिः ॥
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विहाय सर्व प्रभवोपभोगमादाय रम्यं शिवदं व्रतित्वम् ॥ आप सर्वागमपारमाशु श्रीनेमिसूरिं सततं स्तुवे तम् ॥ १ ॥
विदग्धपद्माकरराजहंसं विदग्धदोषौघविशालदावम् ॥
अखण्ड भूव्याप्तवरप्रतापं श्रीनेमिसूरिं प्रणमाम्यजस्त्रम् ॥२॥ वितन्द्रिपङ्कं प्रविमुक्तदार जगज्जनप्रावृषिका वारम् ॥
स्वदेशना रञ्जितभव्यभारं
श्रीनेमिसूरिं प्रणमाम्यजत्रम् ॥३॥
समस्तनिक्षेपन याम्बुनाथं
स्फुरद्विवेकं स्फुटशर्म हम् ॥ चारुवतं त्यक्तविलासवृन्दं श्रीनेमिसूरिं प्रणमाम्यजस्रम् ॥४॥ उदारबुद्धिं वचनप्रसिद्धिमासन्न सिद्धिं नुवनप्रसिद्धिम् ॥
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