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[१८] १-अप्पडिकुटुं उपाधि, अपत्थणिजं असंजद जणहिं मृच्छादि जणण रहिदं, गेएहदु समणो यदि वि अप्पं ॥२२॥
आहारे व विहारे देशं कालं समं खमां उपधि । जाणित्ता ते समणो वट्टदि जदि अप्पलेवी सो ॥ ३० ॥
(भा: कुन्द कुन्द प्रवचन सार) दिगम्बर मुनि उपधि का स्वीकार करे, परन्तु उस में ममत्व नहीं रक्खे । आहार और विहार में उपधि की अपेक्षा को समझ कर योग्य प्रवृति करे।
२-सेवाह चउविहलिंग, अभिंतरलिंगसुद्धि मावएणो । बाहिर लिंगमकज्ज, होइ फुडं भाव रहियाणं ॥१०६॥
(आ• कुन कुंद कृत भाव प्रामृत गा• । ९) ३-ववहारो पुण णो, दोरिण वि लिंगाणि भणदि मोक्ख पहे।
णिच्छणयो दु णिच्छदि, मोक्खपहे सव्वलिंगाणि ॥
टीकांश-व्यवहारिक नयो द्वे लिंगे मोक्षपथे मन्यते । द्रव्यलिंगमात्रेण संतोष मा कुरु किन्तु द्रव्यलिंगाधारेण निश्चयरत्न त्रयात्मक निर्विकल्प समाधिरूप भावनां कुरुत । द्रव्यलिंगाधार भूतो योऽसौ देहः तस्य ममत्वं निषिधं । __ माने व्यवहारनय मोक्षमार्ग में मुनि वेश और शानादि एवं दोनों का स्वीकार करता है और निश्चयनय मोक्ष मार्ग में सब लोगों का निषेध करता है।
भा• कुंद कुंद कृत समय प्राभूत गा० ४४४ भा• जिन सेन कृत तात्पर्य वृत्ति पृ. २०८) ४-पिंडं उवाधि सेज्जं, उग्गम उप्पाद णेसणादीहि । चरित रक्खणटुं, सोधितो होइ सुचरितो ॥ २६३ ॥
(भगवती भाराधना गा० १९३ पृ० ११)
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