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[ ३१ ] आमचेलुक्कुद्देसिय सेज्जाहर राय पिंडं किदियम्मं ।
बद जेट्ठ पडिक्कमणं मासं पजो समण कप्पो । .. (दि० आ० वटवेरकृत मूलाचार परि० १० गा १८ भा० नि० गा० १२४६ )
अब वे ही प्राचार्य मुनि के लिये उपधि वगैरह की भी आज्ञा देते हैं । दखिये
पिंडोवधि सेज्मा ओ, अविसोधिय जो य भंजद समणो। मूलठाणं पत्तो भुवणे सु हवे समणपोल्लो ॥ १० १२५।
टीकांश-पिंडं उपधि शय्यां आहारोपकरणाऽऽवासादिकम विशोध्य इत्यादि । समणपोल्लो अर्थात् श्रामण्यतुच्छः ।
फासुग दाणं फासुगउवधि तह दोवि अत्तसोधीए ।
जो देदि जोय गिरहदि. दोरणपि महफल होइ ।।।१०। ४५॥ टीकांश-हिंसादि दोष रहित मुपकरणम् णाणुवहि संजमुवहिं सउचुवहिं अण्णमप्पुवहिं वा । पयदं गह-णिकखेयो संमिदी आदाण णिकखेवा ॥ मुनि को ज्ञानोपधि संयमोपधि और भिन्न २ उपधि होती है। (परि० १ गा० १४) मुनि के लिये और भी उपधि का जिक्र । (५० ३ गा० ११४)..
गुरु साहम्मिय दव्वं, पुत्थय मरणं च गरिहदं इच्छे । तोस विणयण पुणो णिमंतणा होइ कायब्वा ।। १३८ । गुरु द्रव्य, साधमिक मुनि द्रव्य, गुरु पुस्तक (०४ गा० १३८)
सारांश:-अचेल कल्प भी वस्त्र की मर्यादा करने वाला होने से वस्त्र विधान का अंग ही है।
दिगम्बर --वस्त्र वाले को सामायिक चारित्र नहीं होता है।
जैन-सामायिक देशावगासिक और पौषध ये साधु जीवन के प्राथमिक शिक्षा पाठ है । इन सामायिक आदि को बस्त्र वाले
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