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[ २५. ] दूषण रूप नहीं है । मूळ हो तो शरीर भी परिग्रह है अतः मूर्छ के अभाव में यह सब अपरिग्रह रूप हैं इतना तो हमें मंजूर है।
जैन--यदि दिगम्बर मुनि उपधि रखने पर भी अपरिग्रही हैं तो श्वेताम्बर मुनि भी उपधि रखने पर अपरिग्रही हैं। - और श्री तीर्थकर भगवान भी छै पर्याप्ति की वर्गणा रूप पर द्रव्य को लेते हैं मगर वे अपरिग्रही ही है। कारण ! मूर्छा नहीं है। इसी प्रकार मुनि भी अमूञ्छित रूप से उपधि रक्खें तो अप. रिग्रही ही है।
दिगम्बर--अजी ! मुनि जी कुछ भी करें उससे हमारा कोई भी वास्ता नहीं है सिर्फ इतना होना चाहिये कि वे वस्त्र धारी न हो, नंगे हो । वास्तव में दूसरी २ चीज परिग्रह हो, या न हो, मगर वस्त्र तो परिग्रह ही है । श्रा० कुन्द कुन्द दूसरी उपधि की आशा देते हैं मगर वस्त्र का नाम लेकर निषेध करते हैं देखिये प्रमाण .१-पंचविह चेल चायं, खिदिसयणं दुविह समं भिक्खू । भावं भाविय पुव्वं, जिणलिंगं हिम्मलं सुद्धं ॥८१ ॥ ( आ० कुन्द कुन्द कृत भावप्राभूत गा० ७९ । ८1) २-जे पंच चेल सत्ता ।। ७६ ॥ ( मोक्ष प्राभृत ) ३--पंचच्चेल च्चाओ ॥ १२४ ॥ क-प्रति ॥ अंडज बुंडज रोमज, चर्म च वल्कज पंच चेलानि ॥ परिहत्य तृणज चेलं, यो गृह्णीयान्न भवेत् स यतिः ।
(भा० देवसेन कृत, भाव संग्रह गा० १२४ ) ४- यदि मुनि दर्प और अहंकार से वस्त्र ओढले तो पंच कन्याणक, यदि अन्यकारणसे प्रोढले तोमहाव्रतभंग हो जाय ।
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