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१३५ 'चमरेन्द्र' बना, और उसने ऊपरके सौधर्म देवलोकमें अपने ठीक शिर पर बैठे हुए 'सौधर्मेन्द्र' को वहांसे हटानेके लीए सुसुमार पुरमें खडे २ ध्यान करते हुए भगवान महावीरस्वामीका शरण लेकर प्रथम देवलोकके सौधर्मावतंसक बिमानमें प्रवेश किया, और इन्द्र को कोसा । वह सातवां 'चमरोत्पात' आश्चर्य है।
जैन-देव और असुरोमें स्वाभाविक वैर बना रहता है, अतः यह घटना बनी है।
आ० नेमिचंद्र सिद्धांत चक्रवर्ति भी फरमाते हैं कि- ' चमरो सोहम्मेण य, भदाणंदो य वेणुणा तेसि । विदिया बिदिएहि समं, इसति सहावदो नियमा ॥२१२॥
चमरेन्द्र सौधर्मेन्द्रसे इर्षा रखता है, भूतानंद वेणुसे इर्षा रखता है और वैरोचन धरणेन्द्र वगेरह असुरेन्द्र ईशानेन्द्र वगेरह देवेन्द्रों से इर्षा रखते हैं, उनका यह वैरभाव स्वाभाविक ही निश्चय से बना रहता है।
(त्रिलोक सार गाथा २१२) ____ यद्यपि भूवनपति देव इतनी ऊर्ध्वगति करनेकी ताकात रखते हैं मगर वे इतनी ऊर्ध्वगति करते नहीं है, फिर भी यह चमरेन्द्र ऊपर गया अतः वह 'अघट घटना' मानी गई है ।
इस घटनामें सौधर्मेन्द्र को जिनेन्द्रभक्ति का भी अच्छा परिचय मीलता है । क्योंकि-सौधर्मेन्द्र ने भी चमरेन्द्र को वज्र फेंककर भगाया तो सही, किन्तु भगवान् महावीर स्वामीके शरण लेने के कारण छोड़ भी दीया ।
यहां असुरेन्द्र सोधर्म देवलोकमें गया, यह 'आश्चर्य' माना जाता है।
दिगम्बर-श्वेताम्बर मानते हैं, कि-(८) तीर्थकर भगवान् का उपदेश निष्फल जाता नहीं है, किन्तु ऋजुवालुका नदीके किनारे पर प्रथम समोसरनमें दिया हुआ भ० महावीर स्वामीका उपदेश सीर्फ देव-देवीऑकी ही पर्षदा होनेके कारण निष्फल गया । वह आठवा 'अभाबिता परिषद्' आश्चर्य है ।
जैन-दिगम्बर शास्त्र भी इस घटनाकी गवाही प्रकारान्तर
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