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जैन-तीर्थंकर भगवान् आर्यभूमि में जन्म पावे यह तो ठीक बात है, किन्तु आगे बढ़करके अमुक स्थानमें ही जन्म पावे ऐसा छोटा डायरा मान लेना वही वास्तव में आश्चर्य है। यदि अयोध्या नगर में ही तीर्थकरो का जन्म होना चाहिए यह अनादि नियम होता तो वहाँ ही चारो कल्याणक होने के कारण उस नगरका वास्तविक नाम 'कल्याणक नगर' ही होता, या वह नगर 'शाश्वत' ही होता और चक्रवर्ती वासुदेव आदि के लीये भी वही जन्मभूमि रहता ॥१॥
दिगम्बर-दिगम्बर मानते हैं कि-(२) तीर्थकरों को संतान हो तो 'पुत्र' ही होना चाहिये पुत्री नहीं होनी चाहिये। किन्तु भगवान् ऋषभदेव को ब्राह्मी सुंदरी ये पुत्रीयाँ हुई, वह दूसरा आश्चर्य है।
जैन-तीर्थकर चक्रवर्ती होकर वादमें भी तीर्थकर हो सकते हैं, इस हालतमें उन चक्री-तीर्थकरोको दिगम्बर हिसाब से १६००० रानीयाँ होती हैं, यह कैसे माना जाय कि इन सब को कोई भी पुत्री नहीं होती है ? क्या इन सबकी ऐसी ही तगदीर बनी होगी? । वास्तव में स्त्रीमोक्ष के खिलाफ में स्त्री जातिकी लघुता बताने के लीये हो यह घटना 'अघट' बन गई है ॥२॥
दिगम्बर-पुत्री की शादी करते समय पिता दामादको नमः स्कार करता है, वही परिस्थीति तीर्थंकर की भी होवे, अतः तीर्थकरके पुत्री होना उचित नहीं है।
जैन-श्वसुरजी दामादको नमें यह नियम न अनादि है, न शास्त्रोक्त है, न जैन विवाहविधि कथित है, न व्यापक है, और न सर्वत्र प्रचलित है।
कभी कीसी समाज में ऐसा व्यवहार चलता भी हो तो उसके आधार पर तोथैकरके लीये भी दामादको नमने का करार दे देना, यह तो एक बचाव मात्र है। भूलना नहीं चाहिये कि कई समाज में तो ससुरजी व सासुजी पिता व माता के समान माने जाते हैं।
दिगम्बर-दिगम्बर मानते हैं कि (३) तीर्थकर भगवान को छद्मस्थ दशामें अपना अवधिज्ञान प्रकाशित करना नहीं चाहिये । किन्तु भगवान् ऋषभदेव ने बैसा किया, वह तिसरा आश्चर्य है।
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