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जैन तीर्थंकर भगवान् कृपण होते नहीं है, दानी होते हैं । वे राज्यकालमें फुटकर दान देते रहते हैं दीक्षा लेने से पहिले परोपकारके लीये वार्षिकदान देते हैं, और सर्वज्ञ होने के बाद धर्मोपदेश देते हैं दर्शन, ज्ञान व चारित्र का दान करते हैं । दिगम्बर आदिनाथ पुराण में भी भगवान के दीक्षा समय में भगवान की आज्ञासे भरतवक्रीने दिया हुआ दानका अधिकार है । यह वार्षिक दानका नामान्तर ही है ।
दिगम्बर- आदिपुराण में उल्लेख है कि भगवान् ऋषभदेवने नीलांजना देवीका नाच देख कर वैराग्य पाकर दीक्षा का स्वीकार किया । श्वेताम्बर वैसा मानते नहीं है ।
जैन- जो ७२ कलाओं का, जिन में नृत्य कलाका भी समावेश होता है, आदि सृष्टा है । जो कर्मभूमि और धर्मभूमिका आदि निर्माता है उन ऋषभदेव के वैराग्य के लिये दूसरे निमित्त को मानना, यह विचित्र समस्या है ।
तीर्थकर भगवान् तीन ज्ञानवाले होते हैं अपने दीक्षा काल को ठीक जानते ही हैं और स्वयंबुद्ध होते हैं । उन को बाह्य निमित्त की एकान्त अपेक्षा रहती नहीं है । यद्यपि लोकान्तिक देव अपने आचार के अनुसार तीर्थकर देव को " दीक्षा लेकर तीर्थ प्रवर्तन करो" इत्यादि विनति करते हैं किन्तु भगवान् तो अपने ज्ञानसे दीक्षाकालको देखकर ही दीक्षा लेते हैं ।
दिगम्बर - श्वेताम्बर मानते हैं कि भगवान् ऋषभदेवने दीक्षा कालपर्यन्त देवानीतकल्पवृक्ष के फलोंका ही आहार किया था ।
जैन- -देवो भक्ति से कल्पवृक्ष के फल लाते थे और भगवान् उन्हें खाते थे इसमें अजीव बात क्या है ? इन्द्रने भी भगवान् को ईख देकर इक्ष्वाकुवंश स्थापित किया है । यहाँ देवभक्ति की ही प्रधानता है । दिगम्बर भी कहते हैं कि भगवान महावीरने देवोपनीत भोग भोगे हैं । (नि० ७)
दिगम्बर- -श्वेताम्बर मानते हैं कि जब दीक्षा लेते हैं तब इन्द्र उनके कंधे पर
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तीर्थकर भगवान देवदुष्य- वस्त्र रख