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है । किन्तु तत्कालीन सभ्यताके योग्य कुछ २ संस्कारकरण भी है, सम्भवतः ईश्वर के माता पिता युगलिक न हों एसी २ बात भी कुछ उस संस्कार का ही फल है ।
भ० आदिनाथ ने २० लाख पूर्व के बाद युगलिक प्रवृत्ति में संस्कार दिया यह बात उक्त पुरण के पर्व १६ में श्लो• १४२ से १९० तक हैं जिसका परमार्थ यह है
"भोग भूमि की रीति के समान होने पर भगवान ने विचार किया कि पूर्व और पच्छिम विदेह में जो स्थिति विद्यमान है प्रजा अब उसीसे जीवित रह सकती है. वहाँपर जिसप्रकार षट्कम की और वर्णाश्रम आदि की स्थिति है वैसे ही यहां होनी चाहिए । इन्हीं उपायों से इनकी आजीविका चल सकती है, अन्य कोई उपाय नहीं है। इसके बाद इन्द्रने भगवान की इच्छानुसार नगर ग्राम देश आदि बसाये, और भगवान् ने प्रजाको छह कर्म सिखला कर क्षत्रिय वैश्य और शूद्र ईन तीन वर्णो की स्थापना की ।
( ब्राह्मणों की उत्पत्ति पृ० ३२ ) इस पाठ से तय होता है कि भगवान् ऋषभदेवने ही स्वराज्यकाल में भोगभूमि की मर्यादा का परावर्तन किया । आजतक युगलिक व्यवहार था, उस को भी भ० ऋषभदेवने ही छुडाया है । इस हालत में "भ० ऋषभदेव के समय तक युगलिक मर्यादा थी और नाभिराजा व मरुदेवी ये दोनो भाई बहेन थे एवं युगलिक - युगलिनी थे वह मानना अनिवार्य हो जाता है । नाभिराजाने तो युगलिक रीति को संस्कार दिया नही है, फिर उसने ऐरवत के राजाकी भगिनी से व्याह किया, यह कैसे ? वे युगलिक ही थे आदिपुराण का उपरका पाठ उसी बातकी ताईद · समर्थन करता है, माने नाभिराजाने बेरवतकी राजभगिनी से ब्याह किया, यह निराधार मान्यता है ।
इसके अलावा भरत और ऐरवत क्षेत्र में आपसी मुसाफरी सम्बन्ध नहीं है, ईतना ही क्यों तीर्थकर या चक्रवर्ती भी वहां जाते नही है-जा सकते नहीं है, अत एव यह नामुमकीन हैकि युगलिक वहां जाय, युगलिक मर्यादाको तोडे और वहांकी कन्यासे ब्याह शादी करे ।
सारांश यह है कि नाभिराजा और मारुदेवी माता ये दोनों भोग भूमिके युगलिक थे, उस जमाना के आदर्श पति-पत्नी थे।
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