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न तावद्रा
जैन - केवली भगवान में न मोहनीय हैं, न आसक्ति है। उनको तो शातावेदनीय, अशातावेदनीय, अशुभ नाम कर्म का उदय रहता है । परिषह और अनुकूल प्रतिकूल उपसर्ग भी होते है, धवला टीका के निर्माता ने सूत्र १२९ की टीका में, जादि लक्षणायां संपदि [ व्यापारः ] तस्याः सवेद्यतस्समुत्पत्तेः लिखकर राज्यादि सुखों को भी शातावेदनीय में सामील माने हैं । होनहार तो होता ही है इस हालत में वैसा बनना भी असंभव नहीं है ।
दिगम्बर - तब तो केवलज्ञान के पाने के लिये जो विशिष्ट मुद्रा होना आवश्यक है वह बात भी न रहेगी । जैन - दिगम्बर शास्त्र में भी कुछ ऐसा ही उल्लेख है । देखिए
(१) तेरहवे गुणस्थान में है संस्थान होते हैं, माने- केवली भगवानको कुब्ज व हुंड संस्थान भी रहते हैं । इस हालत में नीयत आसन और मुद्रा का प्रश्न ही बेकार है ।
(२) वारहवे गुणस्थान तक दर्शनावरणीय कर्म, निद्रा और प्रचला का उदय हो सकता है ।
इस दशा में विशिष्ट आसन का एकान्त नियम कैसे माना जाय ? (३) दिगम्बर प्रतिमा विधानमें तीर्थकरकी दृष्टि ऊंची या नीची हो तो नुकसान बताया है और समदृष्टि हो तो लाभ बताया है । माने मुंदे हुए नेत्र सप्रमाण नहीं हैं। इससे भी स्पष्ट है कि केवली भगवान्की विशिष्ट मुद्रा नहीं है ।
(४) दिगम्वराचार्य नेमिचन्द्र सिद्धांत चक्रवर्तिने त्रिलोकसार में नंदीश्वरद्वीप की जिनप्रतिमाओंका वर्णनं करते हुए बताया है किसिंहासनादिसहिया, विणील कुंतल, सुवजमयदंता । विदुम अहरा, किसलय - सोहायर हत्थपायतला ॥ ९८५ ॥ दसताल माग लक्खण भरिया पेक्खंत इव वदंता वा । पुरुजिण तुंगा पडिमा, रयणमया अट्ठ अहियसहिया ॥ ९८६ ॥
माने- - उन जिन प्रतिमाओं में नीले केश वज्रमय दांत, लाल होठ, किसलय से हाथपेर के तलीये १० ताल प्रमाण नाप व लक्षण
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