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मनुग्यगति, पंचेन्द्रिय, त्रस, बादर, प्रत्येक, पर्याप्त वगैरह प्रकृतिओं का उदय है, जो प्रकृतियां औदारिक शरीरको व्यक्त करती है ।
(३) औदारिक काययोग, वचनयोग और मनोयोग होने के कारण "सयोगी" दशा है, जो औदारिक शरीर की ताईद करती है।
(४) केवलि समुद्घात होता है, वह भी केवली के औदारिक शरीर के पक्षमें ही है।
(५) वर्गणा भी औदारिक आदि आठ प्रकारकी ही हैं, उनसे अधिक वर्गणा नहीं है, और उन आठों में परमौदारिक नामवाली वर्गणा भी कोई नहीं है।
(६) "ततो रालिय देहो", माने-केवली भगवानको औदारिक शरीर है।
(मूलाचार, परि० १२ गा० २०६) ___ (७) कायजोगि-केवलीणं भण्णमाणे अस्थि पगं गुणट्ठाणं, एगो जीवसमोसो दो वा, छपज्जत्तिओ,चत्तारिपाण दोपाण, खोण सण्णाओ, मणुसगदी, पंचिंदिय जादी, तसकाओ, ओरालिय मिस्स-कम्मइय कायजोगो, इदि तिपिणजोग, अवगद वेदो।
छक्खंडागम, धवल टीका पु. २ पृ. ६४८] (८) ओरालिय कायजोगीणं भण्णमागे अस्थि तेरह गुणट्ठा णाणि, ++ ओरालिय कायजोगो।
__ [छक्खंडागम धवलटीका, पु० २, पृ० ६४९.] इन प्रमाणों से केवली भगवान के शरीर को औदारिक ही मानना प्रमाणसंगत है ।
दिगम्बर-केवली को तेरहवें गुणस्थान में वज्र ऋषभनाराच संहनन है, यह बात तो ठीक है। दिगम्बर शास्त्र भी ऐसा ही मानते है । देखिए
अपूर्वकरणाख्ये, चानिवृत्तिकरणाभिधौ । सूक्ष्मादिसांपरायाख्ये, क्षीणकषायनामनि ॥१२७॥ सयोगे च गुणस्थाने, ह्याचं संहननं भवेत् । केवले क्षपकश्रेण्यारोहणे कृतयोगिनाम् ॥१२८॥ क्षपकश्रेणी में ८ से १३ तक वजऋषभनाराच संहनन
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