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(मझिमनिकाय पृ० ३.१।३०४ उपासक दशांग ) वगैरह वगैरह।
कहने की आवश्यकता नहीं है कि इस मुनि संघ ने उपरोक्त वातों में सुधार कर और भ० महावीर स्वामीकी श्राशाको अपना कर उनके संघ में प्रवेश कीया था परन्तु यह संघ अनेकांत दृष्टि से अचेलक रहने में भी स्वतंत्र था।
इस संघ की मुनि परम्परा अाज भी श्राजीवक, त्रैराशिक और दिगम्बर इत्यादि नाम से विख्यात है।
(हलायुधकृत अभिधान रत्नमाला, विरंचीपुर का शिलालेख, तामिल शब्द कोष, सूत्रकृतांगटीका)
इस प्रकार ये दोनों संघ श्रमण संघ में सम्मिलित हो गये । उस समय वह श्रमण संघ अविभक्त था । उसमें न वस्त्र का एकांत आग्रह था ? न नग्नता का ? न पुरुष जाति से पक्षपात था! न स्त्री जाति से ? इसी प्रकार ६०० वर्ष तक अविभक्तता जारी रही। बाद में किसी एक मुहूर्तकाल में दिगम्वरत्व को प्रधानता देकर, श्राजीवक संघ का कोई दल अलग होगया, और उसने प्राजीवक मत की शीतोदक ग्रहण वगैरह जो मान्यताएं थीं उनमें से कई को पुनः स्वीकार कर लिया। उस समय उसके नायक थे श्रा० शिव भूति याने भूतबली और प्रा० कुंद कुंद वगैरह
दिगम्बर--उपलब्ध दिगम्बर शास्त्रों में भी शीतोदक ग्रहण भादि के प्रमाण मिलते हैं ?
जैन-हाँ ? आपकी जानकारी के लिये थोड़े से प्रमाण देता हूँ
१ पाषाण स्फोटितं तोयं, घटी यंत्रेण ताडितं । सद्या संतप्त वापीनां, प्रासुकं जल मुच्यते ॥
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